Qur’an Ki Shikshayen
January 11, 2016Fear Allah with regards to your wives
January 12, 2016इस्लाम में मानव-अधिकारों की अस्ल हैसियत
जब हम इस्लाम में मानवाधिकार की बात करते हैं तो इसके मायने अस्ल में यह होते हैं कि ये अधिकार ख़ुदा के दिए हुए हैं। बादशाहों और क़ानून बनाने वाले संस्थानों के दिए हुए अधिकार जिस तरह दिए जाते हैं, उसी तरह जब वे चाहें वापस भी लिए जा सकते हैं। डिक्टेटरों के तस्लीम किए हुए अधिकारों का भी हाल यह है कि जब वे चाहें प्रदान करें, जब चाहें वापस ले लें, और जब चाहें खुल्लम-खुल्ला उनके ख़िलाफ़ अमल करें।
लेकिन इस्लाम में इन्सान के जो अधिकार हैं, वे ख़ुदा के दिए हुए हैं। दुनिया की कोई विधानसभा और दुनिया की कोई हुकूमत उनके अन्दर तब्दीली करने का अधिकार ही नहीं रखती है। उनको वापस लेने या ख़त्म कर देने का कोई हक़ किसी को हासिल नहीं है। ये दिखावे के बुनियादी हुकूक़ भी नहीं हैं, जो काग़ज़ पर दिए जाएँ और ज़मीन पर छीन लिए जाएँ। इनकी हैसियत दार्शनिक विचारों की भी नहीं है, जिनके पीछे कोई लागू करने वाली ताक़त (Authority) नहीं होती। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर, एलानात और क़रारदादों को भी उनके मुक़ाबले में नहीं लाया जा सकता।
क्योंकि उन पर अमल करना किसी के लिए भी ज़रूरी नहीं है। इस्लाम के दिए हुए अधिकार इस्लाम धर्म का एक हिस्सा हैं। हर मुसलमान इन्हें हक़ तस्लीम करेगा और हर उस हुकूमत को इन्हें तस्लीम करना और लागू करना पड़ेगा जो इस्लाम की नामलेवा हो और जिसके चलाने वालों का यह दावा हो कि ‘‘हम मुसलमान’’ हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते और उन अधिकारों को जो ख़ुदा ने दिए हैं, छीनते हैं, या उनमें तब्दीली करते हैं या अमलन उन्हें रौंदते हैं तो उनके बारे में कु़रआन का फै़सला यह है कि:
‘‘जो लोग अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ फै़सला करें वही काफ़िर हैं’’ (5:44)
इसके बाद दूसरी जगह फ़रमाया गया:
‘‘वही ज़ालिम हैं’’ (5:45)
और तीसरी आयत में फ़रमाया:
‘‘वही फ़ासिक़ हैं’’ (5:47)
दूसरे शब्दों में इन आयतों का मतलब यह है कि अगर वे ख़ुद अपने विचारों और अपने फै़सलों को सही-सच्चा समझते हों और ख़ुदा के दिए हुए हुक्मों को झूठा क़रार देते हों तो वे काफ़िर हैं। और अगर वह सच तो ख़ुदाई हुक्मों ही को समझते हों, मेगर अपने ख़ुदा की दी हुई चीज़ को जान-बूझकर रद्द करते और अपने फै़सले उसके ख़िलाफ़ लागू करते हों तो वे फ़ासिक़ और ज़ालिम हैं। फ़ासिक़ उसको कहते हैं जो फ़रमाबरदारी से निकल जाए, और ज़ालिम वह है जो सत्य व न्याय के ख़िलाफ़ काम करे।
अतः इनका मामला दो सूरतों से ख़ाली नहीं है, या वे कुफ्ऱ में फंसे हैं, या फिर वे फ़िस्क़ और जु़ल्म में फंसे हैं। बहरहाल जो हुक़ूक़ अल्लाह ने इन्सान को दिए हैं, वे हमेशा रहने वाले हैं, अटल हैं। उनके अन्दर किसी तब्दीली या कमीबेशी की गुंजाइश नहीं है।
ये दो बातें अच्छी तरह दिमाग़ में रखकर देखिए कि इस्लाम मानव-अधिकारों की क्या परिकल्पना पेश करता है।
Courtesy :
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Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization ( IERO )