Weekly Dars-e-Qur’an (Ladies) Friday, 8th April March 2016
April 5, 2016Achieving a Happy Family Life
April 6, 2016मैं नहीं जानती थी कि इस्लाम में महिलाओं को इतना ऊंचा मुकाम दिया गया है – प्रोफेसर खदीजा स्यू वेस्टन
एक बार फिर ईश्वर से हिदायत की दुआ के दो माह बाद एक दिन मुझे महसूस हुआ मानों मेरे अंदर कोई एक खास बूंद टपकी हो। मैं उठ खड़ी हुई और यह पहला मौका था जब मैंने अल्लाह शब्द बोला। मैंने दुआ की – “ऐ अल्लाह मेरा यकीन है कि तू सिर्फ एक है और तू ही सच्चा गॉड है”। उस दिन मैंने एक खास सुकून का एहसास किया और उस दिन इस्लाम अपनाने के बाद पिछले चार सालों में मैंने इस्लाम अपनाने के अपने फैसले पर कभी खेद महसूस नहीं किया।
वे कट्टर ईसाई थीं। लेकिन जब इस्लाम का अध्ययन किया और इस्लाम के रूप में सच्चाई सामने आई तो इसे अपना लिया।
पूर्व पादरी, मिशनरी, प्रोफेसर और धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री धारक खदीजा स्यू वेस्टन की जुबानी कि आखिर वे किस तरह इस्लाम की आगोश में आईं।
यह तुम्हें क्या हो गया है?
यह पहली प्रतिक्रिया होती थी जब इस्लाम अपनाने के बाद पहली बार मेरे क्लास के साथी, दोस्त और साथी पादरी मुझसे मिलते थे।
मुझे लगता मैं उनको दोष नहीं दे सकती थी। धर्म बदलने की वजह से मैं उनके लिए सबसे ज्यादा नापसंदीदा बन गई थी। पहले मैं प्रोफेसर, पादरी, चर्च प्लांटर और मिशनरी थी। धर्म के मामले में मैं बेहद कट्टर थी।
बात तब की है जब मैंने पादरियों की एक विशेष शिक्षण संस्था से ग्रेजुएशन के बाद धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री ली ही थी। इसके छह महीने बाद ही मेरी मुलाकात एक महिला से हुई जो सऊदी अरब में काम करती थी और वह इस्लाम अपना चुकी थी।
मैंने उस महिला से जाना कि इस्लाम में महिलाओं को किस तरह की हैसियत और अधिकार दिए गए हैं?
उसका जवाब जानकर मुझे बेहद हैरत हुई। दरअसल मैं नहीं जानती थी कि इस्लाम में महिलाओं को इतना ऊंचा मुकाम दिया गया है। मैंने उससे अगला सवाल अल्लाह और मुहम्मद (सल्ल.) से संबंधित पूछा। उसने मुझे बताया कि वह मुझे इस्लामिक सेन्टर ले जाएगी ताकि वे मेरे सवाल का बेहतर जवाब दे सकें।
प्रार्थना के दौरान हम जीसस से बुरी ताकतों और शैतान से हिफाजत करने की प्रार्थना करते थे।
इस्लामी केंद्र में उनसे मिलकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। उनका अंदाज और व्यवहार सीधा व सरल था। कोई बनावटीपन नहीं। ना किसी तरह का भय और परेशानी का दिखावा, ना कोई मनोवैज्ञानिक चालाकी और ना ही किसी तरह का अचेतन प्रभाव डालने की कोशिश। उन लोगों में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला बल्कि उन्होंने कहा – आप घर पर बाइबल के अध्ययन के साथ-साथ कुरआन का अध्ययन भी करें। मुझे तो इनके इस तरह के व्यवहार पर बेहद आश्चर्य हुआ। उन्होंने मुझे कुछ किताबें दी और कहा कि अगर इनको पढऩे के बाद उनके दिमाग में किसी तरह के सवाल उठते हैं तो उनसे जवाब जाना जा सकता है।
… मैंने पहली बार इस्लाम पर किसी मुस्लिम की लिखी किताब पढ़ी थी। इससे पहले मैंने इस्लाम पर ईसाइयों द्वारा लिखित किताबें ही पढ़ी थी। अगले दिन मैं फिर से इस्लामी केंद्र गई और वहां मैंने कई सवाल पूछते हुए करीब तीन घण्टे गुजारे।
और फिर मैं हफ्ते में एक बार इस्लामी केंद्र जाने लगी। इस तरह मैंने इस्लाम से जुड़ी तकरीबन बारह किताबें पढ़ डाली। यह पढऩे पर मुझे समझ में आया कि मुसलमानों को ईसाईयत की तरफ लाने के मामले में ही सबसे ज्यादा मेहनत क्यों करनी पड़ती है। आखिर मुसलमान धर्म बदलने के मामले में इतने कठोर क्यों हैं?
क्या आप जानना चाहते हैं वे ऐसे क्यों हैं?
क्योंकि उनको ऑफर करने के लिए कुछ होता ही नहीं। क्योंकि मुसलमान सीधे अल्लाह से जुड़ाव रखते हैं, जो गुनाहों को माफ करने वाला है। जिसका वादा है परलोक का अनंत सुख और कामयाबी देने का।
इस्लाम को समझने के दौरान स्वाभाविक रूप से मेरा पहला सवाल यही था कि अल्लाह का अस्तित्व किस रूप में है जिसकी मुसलमान इबादत करते हैं?
दरअसल ईसाई के रूप में हमें पढ़ाया जाता है कि यह एक अलग गॉड है, जबकि सच्चाई यह है कि मुसलमान जिस ईश्वर की इबादत करते हैं वह सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाला, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी-सब जगह उपस्थित है। यह सिर्फ एक है और उसकी शक्तियों में उसका कोई साझी नहीं है। और ना ही कोई उसके बराबर है।
यह बड़ी दिलचस्प बात है कि चर्च के शुरूआती तीन सौ सालों में बिशप ईसा मसीह के बारे में ऐसा ही बताते थे जैसा कि आज मुस्लिम यकीन रखते हैं कि ईसा (अलै.) ईश्वर के पैगंबर और उपदेशक थे। सम्राट कॉन्स्टेन्टीन ने ट्रिनिटी (ईश्वर को तीन रूपों में मानने की ईसाइयों की अवधारणा) ईजाद की। उसे ईसाई धर्म की कोई जानकारी नहीं थी। उसी ने ईसाईयत को मूर्तिपूजक अवधारणा के रूप में प्रस्तुत किया। वक्त की कमी के कारण मैं इस विषय की गहराई में नहीं जा पाई हूं, लेकिन इंशा अल्लाह मैं यह साबित करूंगी कि ट्रिनिटी बाइबल के कई अनुवादों में नहीं है और ना ही मूल ग्रीक और हिब्रू भाषा की बाइबल में यह अवधारणा पाई जाती है।
मेरी दूसरी जिज्ञासा मुहम्मद (सल्ल.) को लेकर थी। मुहम्मद (सल्ल.)कौन हैं?
मैने जाना कि मुसलमान मुहम्मद (सल्ल.) की इबादत नहीं करते जिस तरह कि ईसाई ईसा मसीह की करते हैं। वे ईश्वर और बंदों के बीच मध्यस्थ नहीं है बल्कि मुसलमानों को मुहम्मद (सल्ल.) से प्रार्थना करने के लिए मना किया गया है। मुसलमान तो अपनी इबादत में मुहम्मद (सल्ल.) पर रहम और करम करने की अल्लाह से दुआ करते हैं, उसी तरह जिस तरह मुसलमान इब्राहीम (अलै.) के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं। मुहम्मद (सल्ल.) तो अल्लाह के आखरी पैगबंर और संदेशवाहक हैं। वे अंतिम पैगंबर है। यही वजह है कि पिछले चौदह सौ अट्ठारह सालों में कोई पैगबंर नहीं आया। इनका मैसेज पूरी इंसानियत के लिए है जबकि मूसा और ईसा (अल्ल.) सिर्फ यहूदियों की तरफ भेजे गए पैगबंर थे।
लेकिन इन सबका एक ही मैसेज था-
“तुम्हारा रब सिर्फ एक ही है और सिवाय उसके कोई कोई ईश्वर नहीं है।”
(मार्क 12: 29)
क्योंकि एक ईसाई के रूप में मेरी जिंदगी में प्रार्थना की काफी अहमियत थी, इसलिए मेरी दिलचस्पी और उत्सुकता इस बात में थी कि मुसलमानों का प्रार्थना का तरीका क्या है।
दरअसल एक ईसाई के रूप में हम मुसलमानों के अन्य पहलुओं की तरह उनके इस पहलू को भी नजरअंदाज ही करते थे। हम सोचते थे जैसा कि हमें सिखाया भी गया था कि मुसलमान मक्का स्थित काबा की इबादत करते हैं, उसी के सामने झुकते हैं और यही उनके ईश्वर का केंद्र बिंदु है।
लेकिन मुझे सच्चाई जानकर हैरत हुई कि मुसलमान तो उस तरीके से इबादत करते हैं जो तरीका खुद ईश्वर की तरफ से बताया गया है। उनकी प्रार्थना के शब्दों में उसी एक ईश्वर की महिमा और उसी का गुणगान है। इबादत करने के लिए किस तरह की पवित्रता होना जरूरी है, यह भी उसी ईश्वर ने गाइड किया है। वह ईश्वर बहुत पवित्र है और यह उचित नहीं है कि लोग अपने-अपने हिसाब से मनमाने तरीके से उसकी इबादत करे बल्कि ज्यादा उचित यह है कि ईश्वर हमें गाइड करे कि उसकी प्रार्थना किस तरह की जानी चाहिए।
आठ साल तक धार्मिक अध्ययन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंच गई थी कि इस्लाम सच्चा धर्म है। लेकिन मैंने अभी तक इस्लाम कबूल नहीं किया था क्योंकि अभी तक इस्लाम दिल की गहराइयों में नहीं उतरा था। मैं लगातार प्रार्थना करती, बाइबल का अध्ययन करती और इस्लामी केंद्र में भी लेक्चर में शामिल होती। मैं पूरी गंभीरता से ईश्वर की हिदायत को तलाश रही थी। मैं जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहती थी। और यह भी सच है कि अपना धर्म बदल लेना कोई आसान काम भी नहीं है।
मुझे लगातार बेहद हैरत होती रही कि इस्लाम के बारे में हमें क्या बताया जाता है जबकि इस्लाम सही मायने में कितना अच्छा मजहब है। मेरे मास्टर लेवल कोर्स के दौरान एक प्रोफेसर जो इस्लाम विषय के ऑथोरिटी माने जाते थे, मैं उनका सम्मान करती थी, लेकिन वे और उन जैसे कई ईसाई इस्लाम को लेकर गलतफहमियों के शिकार रहते हैं।
एक बार फिर ईश्वर से हिदायत की दुआ के दो माह बाद एक दिन मुझे महसूस हुआ मानों मेरे अंदर कोई एक खास बूंद टपकी हो। मैं उठ खड़ी हुई और यह पहला मौका था जब मैंने अल्लाह शब्द बोला। मैंने दुआ की-ऐ अल्लाह मेरा यकीन है कि तू सिर्फ एक है और तू ही सच्चा गॉड है। उस दिन मैंने एक खास सुकून का एहसास किया और उस दिन इस्लाम अपनाने के बाद पिछले चार सालों में मैंने इस्लाम अपनाने के अपने फैसले पर कभी खेद महसूस नहीं किया।
इस्लाम अपनाने के बाद मुझे कई तरह के इम्तिहानों से गुजरना पड़ा। मुझे नौकरी से निकाल दिया गया।
उस वक्त मैं दो बाइबल कॉलेजों में पढ़ाती थी। मेरे पूर्व के क्लास के साथियों, प्रोफेसरों और मेरे साथी पादरियों ने मेरा बहिष्कार कर दिया। मेरे शौहर ने मुझे छोड़ दिया और मेरे अपने ही युवा बच्चे मुझे शक की नजरों से देखने लगे। गवर्नमेंट ने मुझ पर संदेह किया। बिना मजबूत ईमान के किसी की वश की बात नहीं कि वह इस तरह की शैतानी ताकतों का मुकाबला कर सके।
अल्लाह ही ने मुझे यह सब सहन करने की ताकत दी वरना मेरे बूते की बात ना थी। अल्लाह का मुझ पर बहुत बड़ा एहसान है कि उसने मुझे मुस्लिम बनाया। अब मुस्लिम के रूप में ही जीना चाहती हूं और मुस्लिम के रूप में मरना।
कहो-मेरी नमाज और मेरी कुर्बानी और मेरा जीना और मेरा मरना सब अल्लाह के लिए है, जो सारे संसार का रब है। उसका कोई साझी नहीं है।
(कुरआन-6: 162-163)
(सिस्टर खदीजा वेस्टन जेद्दा स्थित एक दावत सेंटर में महिलाओं को पढ़ाने का काम कर रही हैं।)
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