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January 15, 2016इन्सानी-अधिकार
इन्सान की हैसियत से इन्सान के अधिकार
सबसे पहली चीज़ जो इस मामले में हमें इस्लाम के अन्दर मिलती है, वह यह है कि इस्लाम इन्सान की हैसियत से इन्सान के कुछ हक़ और अधिकार मुक़र्रर करता है। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हर इन्सान चाहे, वह हमारे अपने देश और वतन का हो या किसी दूसरे देश और वतन का, हमारी क़ौम का हो या किसी दूसरी क़ौम का, मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, किसी जंगल का रहने वाला हो या किसी रेगिस्तान में पाया जाता हो, बहरहाल सिर्फ़ इन्सान होने की हैसियत से उसके कुछ हक़ और अधिकार हैं जिनको एक मुसलमान लाज़िमी तौर पर अदा करेगा और उसका फ़र्ज़ है कि वह उन्हें अदा करे।
1. ज़िन्दा रहने का अधिकार
इन में सबसे पहली चीज़ ज़िन्दा रहने का अधिकार और इन्सानी जान के आदर का कर्तव्य है।
क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि:
‘‘जिस आदमी ने किसी एक इन्सान को क़त्ल किया, बग़ैर इसके कि उससे किसी जान का बदला लेना हो, या वह ज़मीन में फ़साद फैलाने का मुजरिम हो, उसने मानो तमाम इन्सानों को क़त्ल कर दिया’’ (5:32)
जहाँ तक ख़ून का बदला लेने या ज़मीन में फ़साद फैलाने पर सज़ा देने का सवाल है, इसका फै़सला एक अदालत ही कर सकती है। या किसी क़ौम से जंग हो तो उएक बाक़ायदा हुकूमत ही इसका फ़ैसला कर सकती है। बहरहाल किसी आदमी को व्यक्तिगत रूप से यह अधिकार नहीं है कि ख़ून का बदला ले या ज़मीन में फ़साद पै$लाने की सज़ा दे। इसलिए हर इन्सान पर यह वाजिब है कि वह हरगिज़ किसी इन्सान का क़त्ल न करे। अगर किसी ने एक इन्सान का क़त्ल किया तो यह ऐसा है जैसे उसने तमाम इन्सानों को क़त्ल कर दिया।
इसी बात को दूसरी जगह पर कु़रआन में इस तरह दुहराया गया है:
‘‘किसी जान को हक़ के बग़ैर क़त्ल न करो, जिसे अल्लाह ने हराम किया है’’ (6:152)
यहाँ भी क़त्ल की मनाही को ऐसे क़त्ल से अलग किया गया है जो हक़ के साथ हो, और हक़ का फ़ैसला बहरहाल कोई अधिकार रखने वाली अदालत ही करेगी। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने किसी जान के क़त्ल को शिर्क के बाद सबसे बड़ा गुनाह क़रार दिया है।
‘‘सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शिर्क और किसी इन्सानी जान को क़त्ल करना है।’’
इन तमाम आयतों और हदीसों में इन्सानी जान (‘नफ़्स’) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जो किसी ख़ास इन्सान के लिए नहीं है कि उसका मतलब यह लिया जा सके कि अपनी क़ौम या अपने मुल्क के शहरी, या किसी ख़ास नस्ल, रंग या वतन, या मज़हब के आदमी को क़त्ल न किया जाए। हुक्म तमाम इन्सानों के बारे में है और हर इन्सानी जान को हलाक करना अपने आप में हराम किया गया है।
2. जीने का अधिकार ‘इन्सान’ को सिर्फ़ इस्लाम ने दिया है
अब आप देखिए कि जो लोग मानव-अधिकारों का नाम लेते हैं, उन्होंने अगर अपने संविधानों में या एलानों में कहीं मानव-अधिकारों का ज़िक्र किया है तो इसमें यह बात निहित (Implied) होती है कि यह हक़ या तो उनके अपने नागरिकों के हैं, या फिर वह उनको किसी एक नस्ल वालों के लिए ख़ास समझते हैं। जिस तरह आस्ट्रेलिया में इन्सानों का शिकार करके सफ़ेद नस्ल वालों के लिए पुराने बाशिन्दों से ज़मीन ख़ाली कराई गई और अमेरिका में वहाँ के पुराने बाशिन्दों की नस्लकुशी की गई और जो लोग बच गए उनको ख़ास इलाक़ों (Reservations) में क़ैद कर दिया गया और अफ़्रीक़ा के विभिन्न इलाक़ों में घुसकर इन्सानों को जानवरों की तरह हलाक किया गया, यह सारी चीज़ें इस बात को साबित करती हैं कि इन्सानी जान का ‘‘इन्सान’’ होने की हैसियत से कोई आदर उनके दिल में नहीं है। अगर कोई आदर है तो अपनी क़ौम या अपने रंग या अपनी नस्ल की बुनियाद पर है। लेकिन इस्लाम तमाम इन्सानों के लिए इस हक़ को तस्लीम करता है। अगर कोई आदमी जंगली क़बीलों से संबंध रखता है तो उसको भी इस्लाम इन्सान ही समझता है।
3. जान की हिफ़ाज़त का हक़
क़ुरआन की जिस आयत का अर्थ ऊपर पेश किया गया है उसके फ़ौरन बाद यह फ़रमाया गया है कि:
‘‘और जिसने किसी नफ़्स को बचाया उसने मानो तमाम इन्सानों को ज़िन्दगी बख़्शी’’ (5:32)
आदमी को मौत से बचाने की बेशुमार शक्लें हैं। एक आदमी बीमार या ज़ख़्मी है, यह देखे बग़ैर कि वह किस नस्ल, किस क़ौम या किस रंग का है, अगर वह आप को बीमारी की हालत में या ज़ख़्मी होने की हालत में मिला है तो आपका काम यह है कि उसकी बीमारी या उसके ज़ख़्त के इलाज की फ़िक्र करें। अगर वह भूख से मर रहा है तो आपका काम यह है कि उसको खिलाएँ ताकि उसकी जान बच जाए। अगर वह डूब रहा है या और किसी तरह से उसकी जान ख़तरे में है तो आपका फ़र्ज़ है कि उसको बचाएँ।
आपको यह सुनकर हैरत होगी कि यहूदियों की मज़हबी किताब ‘‘तलमूद’’ में हू-ब-हू इस आयत का मज़मून मौजूद है, मगर उसके शब्द ये हैं कि:
‘‘जिस ने इस्राईल की एक जान को हलाक किया, अल-किताब (Scripture) की निगाह में उसने मानो सारी दुनिया का हलाक कर दिया और जिसने इस्राईल की एक जान को बचाया अल-किताब के नज़दीक उसने मानो सारी दुनिया की हिफ़ाज़त की।’’
तलमूद में यह भी साफ़ लिखा है अगर कोई ग़ैर इस्राईल डूब रहा हो और तुमने उसे बचाने की कोशिश की तो गुनहगार होगे। नस्ल परस्ती का करिश्मा देखिये। हम हर इन्सान की जान बचाने को अपना फ़र्ज़ समझते हैं, क्योंकि क़ुरआन ने ऐसा ही हुक्म दिया है। लेकिन वह अगर बचाना ज़रूरी समझते हैं तो सिर्प़$ बनी-इस्राईल (यहूदियों) की जान को, बाक़ी रहे दूसरे इन्सान, तो यहूदी-दीन में वह इन्सान समझे ही नहीं जाते। उनके यहाँ ‘गोयम’ जिसके लिए अंगे्रज़ी में (Gentile) और अरबी में उम्मी का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है, की हैसियत यह है कि उनके कोई इन्सानी अधिकार नहीं हैं।
इन्सानी हुक़ूक़ सिर्फ़ बनी-इस्राईल के लिए ख़ास हैं। क़ुरआन में भी इसका ज़िक्र आया है कि यहूदी कहते हैं कि:
‘‘हमारे ऊपर उम्मियों के बारे में (यानी उनका माल मार खाने में) कोई पकड़ नहीं है’’ (3:75)
Courtesy :
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