Anoushah Ansari, the First Female Space Tourist
January 27, 2016Umar Ibn alKhattab (ra) – A Radiant Sun
January 28, 2016ईमान (भाग-6 अन्तिम) – परलोक पर ईमान
(6) आख़िरत (परलोक) पर ईमान
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें ‘आख़िरत’ पर ईमान लाने की शिक्षा दी है। आख़िरत के बारे में जिन चीज़ों पर ‘ईमान’ लाना आवश्यक है वे ये हैं:
1. एक दिन ईश्वर सम्पूर्ण विश्व और सृष्टि के जीव आदि को मिटा देगा। उस दिन का नाम ‘क़ियामत’ है।
2. फिर वह सब जीवधारियों को दूसरा जीवन देगा और सब ईश्वर के सामने पेश होंगे, इसको ‘हश्र’ (Resurrection) कहते हैं।
3. सब लोगों ने अपने सांसारिक जीवन में जो कुछ किया है उसका पूरा अभिलेख ईश्वर की अदालत में प्रस्तुत किया जाएगा।
4. ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे और बुरे कर्म को तौलेगा। जिसकी भलाई ईश्वर की तुला में बुराई से अधिक भारी होगी उसे क्षमा—दान देगा और जिसकी बुराई का पल्ला भारी रहेगा उसे दंड देगा।
5. जिन लोगों को क्षमा मिल जाएगी, वे ‘जन्नत’ (स्वर्ग) में जाएँगे और जिनको दंड दिया जाएगा वे ‘दोज़ख़’ (नरक) में जाएँगे।
आख़िरत पर ईमान की ज़रूरत
आख़िरत की यह धारणा जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने पेश की है उसी तरह पिछले समस्त नबी इसको प्रस्तुत करते आए हैं और हर युग में इसपर ईमान लाना मुस्लिम होने के लिए अनिवार्य शर्त रहा है। समस्त ईश-सन्देष्टाओं ने उस व्यक्ति को ‘काफ़िर’ (अधर्मी) कहा है जो इससे इन्कार करे या इसमें सन्देह करे, क्योंकि इस धारणा के बिना ईश्वर और उसके ग्रंथों और उसके रसूलों को मानना बिल्कुल बेकार हो जाता है और मनुष्य का सारा जीवन विवृ$त हो जाता है। यदि आप विचार करें तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है।
आपसे जब भी किसी काम के लिए कहा जाता है तो सबसे पहला प्रश्न जो आपके मन में उत्पन्न होता है वह यही है कि:
इसके करने से क्या लाभ है?
और न करने से हानि क्या है?
यह प्रश्न क्यों उठता है?
इसका कारण यह है कि मानव प्रकृति प्रत्येक ऐसे कार्य को बेकार समझती है जिसका कोई नतीजा न हो। आप किसी ऐस काम के लिए तैयार न होंगे जिनके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई लाभ नहीं। और इसी प्रकार आप किसी ऐसी चीज़ से बचना भी न चाहेंगे जिसके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई हानि नहीं। यही बात सन्देह के बारे में भी है। जिस कार्य के लाभ में सन्देह हो उसमें आपका मन कदापि न लगेगा और जिस काम के हानिकारक होने में सन्देह हो उससे बचने की भी आप कोई विशेष कोशिश न करेंगे।
बच्चों को देखिए, वे आग में क्यों हाथ डाल देते हैं?
इसी लिए तो कि उन्हें इस बात का विश्वास नहीं कि आग जलानेवाली चीज़ है। और वे पढ़ने से क्यों भागते हैं? इसी कारण से तो कि जो कुछ लाभ उनके बड़े उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं वे उनके दिल को नहीं लगते। अब सोचिए कि जो व्यक्ति आख़िरत को नहीं मानता वह ईश्वर को मानने और उसकी इच्छा के अनुसार चलने को निष्फल समझता है, उसकी दृष्टि में न तो ईश्वर के आज्ञापालन से कोई लाभ है और न उसकी अवज्ञा से कोई हानि।
फिर कैसे संभव है कि वह उन आदेशों का पालन करे जो ईश्वर ने अपने रसूलों (पैग़म्बरों) और अपने ग्रंथों के द्वारा दिए हैं?
मान लीजिए यदि उसने ईश्वर को मान भी लिया तो ऐसा मानना बिल्कुल बेकार होगा, क्योंकि वह अल्लाह के क़ानून का पालन न करेगा और उसकी इच्छा के अनुसार न चलेगा।
यह मामला यहीं तक नहीं रहता, आप और विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि आख़िरत के मानने या न मानने का मानव-जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। जैसा कि हमने ऊपर बयान किया, मनुष्य की प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वह प्रत्येक कार्य करने या न करने का निर्णय उसके लाभ या हानि की दृष्टि से करता है। अब एक व्यक्ति तो वह है जिसकी निगाह केवल इसी संसार के लाभ और हानि पर है। वह किसी ऐसे अच्छे काम के लिए कभी भी तैयार न होगा जिससे कोई लाभ इस संसार में प्राप्त होने की आशा न हो, और किसी ऐसे बुरे काम से न बचेगा जिससे इस लोक में कोई हानि पहुँचने का डर न हो। एक दूसरा व्यक्ति है जिसकी निगाह कर्मों के अन्तिम नतीजे पर है, वह सांसारिक लाभ और हानि को केवल अस्थायी और क्षणिक वस्तु समझेगा और आख़िरत के शाश्वत और स्थायी लाभ या हानि का ध्यान रखते हुए भलाई और नेकी को अपनाएगा और बुराई को छोड़ देगा, भले ही इस संसार में भलाई और नेकी से कितनी ही बड़ी हानि और बुराई से कितना ही बड़ा लाभ होता हो।
देखिए, दोनों में कितना बड़ा अन्तर हो गया। एक की नज़र में नेकी वह है जिसका कोई अच्छा परिणाम इस संसार के क्षणिक जीवन में प्राप्त हो जाए, उदाहरणतः कुछ रुपया मिले, कोई भूमि हाथ आ जाए, कोई पद मिल जाए, कुछ यश और शोहरत प्राप्त हो, कुछ लोग वाह-वाह करें या कुछ आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो जाए, कुछ इच्छाएँ पूरी हों, कुछ मन को आनन्द प्राप्त हो जाए। और बुराई वह है जिससे कोई बुरा परिणाम इस जीवन में सामने आए या सामने आने की आशंका हो, उदाहरणतः प्राण और धन की हानि, अस्वस्थता, अपयश, राज्य की ओर से दंड, किसी प्रकार का दुःख और शोक, या खिन्नता। इसके विपरीत दूसरे व्यक्ति की नज़र में भलाई और नेकी वह है जिससे ईश्वर प्रसन्न हो, और बुराई वह है जिससे ईश्वर अप्रसन्न हो। भलाई यदि संसार में उसको किसी प्रकार का लाभ न पहुँचाए बल्कि उल्टा हानि ही हानि पहुँचाए तब भी वह उसे भलाई और नेकी ही समझता है और विश्वास रखता है कि अंत में, ईश्वर उसको कभी न ख़त्म होनेवाला लाभ पहुँचाएगा। और बुराई से भले ही यहाँ किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, न हानि का भय हो, बल्कि पूरी तरह लाभ ही लाभ दीख पड़े, फिर भी वह उसे बुराई ही समझता है और विश्वास रखता है कि यदि मैं सांसारिक क्षणिक जीवन में नुक़सान या सज़ा से बच गया और कुछ दिन आनन्द करता रहा तब भी अन्त में अल्लाह के अज़ाब से न बचूँगा।
ये दो विभिन्न विचारधाराएँ हैं, जिनके प्रभाव से मनुष्य दो विभिन्न तरीके़ अपनाता है। जो व्यक्ति ‘आख़िरत’ पर विश्वास नहीं रखता उसके लिए संभव नहीं कि वह एक पग भी इस्लाम के मार्ग पर चल सके। इस्लाम कहता है कि ईश्वरीय मार्ग में ग़रीबों को ज़कात दो, वह उत्तर देता है कि ज़कात से मेरा धन घट जाएगा, मैं तो अपने धन पर उल्टा ब्याज लूँगा और ब्याज की डिग्री में ग़रीबों के घर का तिनका तक व़ु$र्व़$ करा लूँगा। इस्लाम कहता है: हमेशा सत्य बोलो और झूठ से बचो, भले ही सच्चाई में कितनी ही हानि और झूठ में कितना ही लाभ हो। वह उत्तर देता है कि मैं ऐसी सच्चाई को लेकर क्या करूँ जिससे मुझे हानि पहुँचे और लाभ कुछ न हो? और ऐसे झूठ से क्यों बचूँ जो लाभदायक हो और जिसमें बदनामी का भय तक न हो? वह एक निर्जन मार्ग से जाता है, एक क़ीमती चीज़ पड़ी हुई उसको दीख पड़ती है। इस्लाम कहता है कि यह तेरा माल नहीं है, तू इसको कभी भी न ले। वह उत्तर देता है कि बिना मूल्य के आई हुई चीज़ को क्यों छोड़ दूँ। यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, जो पुलिस को सूचना दे या अदालत में गवाही दे, या लोगों में मुझे बदनाम करे, फिर क्यों न मैं इससे लाभ उठाऊँ? एक व्यक्ति चुपके से उसके पास अमानत रखवाता है और मर जाता है। इस्लाम कहता है कि किसी की धरोहर न मारो, उसका माल उसके बाल-बच्चों को पहुँचा दो। वह कहता है क्यों? कोई गवाही इस बात की नहीं कि मरनेवाले का माल मेरे पास है, ख़ुद उसके बाल-बच्चों को इसकी ख़बर तक नहीं है। जब मैं आसानी के साथ इसको खा सकता हूँ और किसी दावे या किसी बदनामी का भय भी नहीं, तो क्यों न इसे खा जाऊँ?
तात्पर्य यह कि जीवन-यात्रा में हर क़दम पर इस्लाम उसको एक तरीके़ पर चलने की शिक्षा देगा, और वह उसके बिल्कुल विरुद्ध दूसरा मार्ग अपनाएगा, क्योंकि इस्लाम में हर चीज़ का महत्व और मूल्य आख़िरत के शाश्वत परिणाम की दृष्टि से है, परन्तु वह व्यक्ति हर मामले में उन परिणामों को देखता है जो इस संसार के क्षणिक जीवन में सामने आते हैं।
अब आप समझ सकते हैं कि आख़िरत पर ईमान लाए बिना मनुष्य क्यों मुसलमान नहीं हो सकता। मुसलमान तो बड़ी चीज़ है, सत्य तो यह है कि आख़िरत को न मानना मनुष्य को मानवता से गिराकर पशुता से भी बदतर अवस्था में ले जाता है।
परलोक (आख़िरत) की धारणा की सत्यता
‘परलोक’ की धारणा की आवश्यकता और उसके लाभ आपको मालूम हो गए। अब हम संक्षेप में आपको यह बताते हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘परलोक’ की धारणा के विषय में जो कुछ बयान किया है, बौद्धिक दृष्टिकोण से भी वही सत्य प्रतीत होता है, यद्यपि परलोक पर हमारा ईमान केवल अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) पर विश्वास के कारण है, बुद्धि उसका आधार नहीं है, परन्तु जब हम सोच-विचार से काम लेते हैं तो हमें ‘परलोक’ की सभी धारणाओं में सबसे अधिक यही धारणा अक़्ल के मुताबिक़ प्रतीत होती है।
‘परलोक’ के बारे में तीन विभिन्न धारणाएं पाई जाती हैं।
एक गिरोह कहता है कि मनुष्य मरने के पश्चात् मिट जाता है, फिर कोई ज़िन्दगी नहीं। यह नास्तिकों का विचार है जो वैज्ञानिक होने का दावा करते हैं।
दूसरा गिरोह कहता है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार इसी संसार में जन्म लेता है। यदि उसके कर्म बुरे हैं तो वह दूसरे जन्म में कोई जानवर जैसे कुत्ता या बिल्ली बनकर आएगा, या कोई पेड़ बनकर पैदा होगा या किसी निम्न श्रेणी के मनुष्य का रूप धारण करेगा और यदि कर्म अच्छे हैं तो अधिक उच्च श्रेणी में पहुँचेगा। यह विचार केवल कुछ अपरिपक्व धर्मों में पाया जाता है।
तीसरा गिरोह ‘क़ियामत’ और ‘हश्र’ (Resurrection) और अल्लाह की अदालत में पेशी और पुरस्कार और दंड की प्राप्ति पर ‘ईमान’ रखता है। यह सारे नबियों (पैग़म्बरों) की सर्वमान्य धारणा है।
अब पहले गिरोह की धारणा पर ग़ौर कीजिए।
इन लोगों का यह कहना है कि मरने के पश्चात् किसी को ज़िन्दा होते हमने नहीं देखा। हम तो यही देखते हैं कि जो मरता है वह मिट्टी में मिल जाता है। इसलिए मृत्यु के पश्चात् कोई जीवन नहीं, परन्तु विचार कीजिए क्या यह कोई दलील है?
मरने के बाद आपने किसी को जीवित होते नहीं देखा तो आप ज़्यादा से ज़्यादा यह कह सकते हैं, ‘‘हम नहीं जानते कि मरने के बाद क्या होगा?’’ इससे आगे बढ़कर आप यह दावा जो करते हैं ‘‘हम जानते हैं कि मरने के बाद कुछ न होगा।’’ इसका आपके पास क्या सुबूत है? एक गंवार ने यदि हवाईजहाज़ नहीं देखा तो वह कह सकता है, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि हवाईजहाज़ क्या चीज़ है?’’ परन्तु जब वह कहेगा कि ‘‘मैं जानता हूँ, हवाईजहाज़ कोई चीज़ नहीं है।’’ तो बुद्धिमान उसे बेवव़ू$फ़ कहेंगे। इसलिए कि उसके किसी चीज़ को न देखने का यह अर्थ नहीं होता कि वह चीज़ है ही नहीं। एक व्यक्ति तो क्या यदि सम्पूर्ण संसार के लोगों ने भी किसी चीज़ को न देखा हो, तो यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह नहीं है या नहीं हो सकती।
इसके बाद दूसरी धारणा को लीजिए।
इस धारणा के अनुसार एक व्यक्ति जो इस समय इनसान है वह इसलिए इन्सान हो गया है कि जब वह जानवर था तो उसने अच्छे कर्म किए थे। और एक जानवर जो इस समय जानवर है वह इसलिए जानवर हो गया कि मनुष्य योनि में उसने बुरे अमल किए थे। दूसरे शब्दों में यूँ कहिए कि मनुष्य, पशु और पेड़ होना सब दरअसल पूर्व जन्म के कर्मों का नतीजा है।
अब प्रश्न यह है कि पहले क्या चीज़ थी?
यदि कहते हैं कि पहले मनुष्य था, तो मानना पड़ेगा कि उससे पहले जानवर या पेड़ होंगे नहीं तो पूछा जाएगा कि मानव का जिस्म उसे किस अच्छे कर्म के बदले में मिला। यदि कहते हैं जानवर या पेड़ था तो, मानना पड़ेगा कि उससे पहले मनुष्य हो अन्यथा प्रश्न होगा कि पेड़ या जानवर की योनि में वह किस बुरे कर्म का दंड भोगने आया है? मतलब यह कि इस अक़ीदे के माननेवाले सृष्टि के जीव आदि का आरंभ किसी योनि से भी निश्चित नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्येक योनि से पहले एक योनि का होना आवश्यक है ताकि बादवाली योनि को पहली योनि के व्यवहार का नतीजा कहा जाए। यह बात साफ़ तौर से बुद्धि के विरुद्ध है।
अब तीसरी धारणा को लीजिए।
इसमें सबसे पहले यह कहा गया है, ‘‘एक दिन क़ियामत आएगी और अल्लाह अपने इस अस्थाई कारख़ाने को तोड़-फोड़ कर नए सिरे से एक दूसरा ऊँचे दर्जे का स्थाई कारख़ाना बनाएगा।’’ यह ऐसी बात है जिसके सही होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। दुनिया के इस कारख़ाने पर जितना विचार किया जाता है उतना ही अधिक इस बात का सुबूत मिलता है कि यह सदैव रहनेवाला कारख़ाना नहीं है, क्योंकि जितनी शक्तियाँ इसमें काम कर रही हैं वे सब सीमित हैं और एक दिन वे निश्चय ही ख़त्म हो जाएँगी। इसलिए समस्त वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हो चुके हैं कि एक दिन सूर्य ठंडा और प्रकाशहीन हो जाएगा, ग्रह एक-दूसरे से टकराएँगे और संसार नष्ट हो जाएगा।
दूसरी बात यह कही गई है कि मनुष्य को पुनः जीवन दिया जाएगा। यह भी एक ऐसी बात है जिसके संभव होने में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं है। यदि इसको असंभव कहा जाए तो प्रश्न उठता है कि जो जीवन मनुष्य को इस समय प्राप्त है यह कैसे संभव हो गया? स्पष्ट है कि जिस ईश्वर ने इस दुनिया में मनुष्य को पैदा किया है वह दूसरे संसार में भी पैदा कर सकता है।
तीसरी बात यह है कि मनुष्य ने इस सांसारिक जीवन में जितने कर्म किए हैं उन सब का लेखा-जोखा (Record) सुरक्षित है और वह हश्र के दिन प्रस्तुत होगा। यह ऐसी चीज़ है जिसका प्रमाण आज हमें इस संसार में भी मिल रहा है। पहले समझा जाता था कि जो आवाज़ हमारे मुँह से निकलती है वह हवा में थोड़ी-सी लहर पैदा करके नष्ट हो जाती है, परन्तु अब मालूम हुआ कि प्रत्येक आवाज़ अपने चारों ओर की चीज़ों पर अपना चिन्ह छोड़ जाती है जिसको पुनः पैदा किया जा सकता है। ऑडियो और वीडियो टेप और सीडियां इसी सिद्धांत पर बनी हैं। इसी से यह मालूम हुआ कि हमारी हर गतिविधि का रिकार्ड उन सब चीज़ों पर अंकित हो रहा है, जो किसी रूप में इस गतिविधि के सम्पर्क में आती हैं। जब हाल यह है तो यह बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत होती है कि हमारे कर्मों का पूरा लेखा-जोखा सुरक्षित है और पुनः उसे पेश किया जा सकता है।
चौथी बात यह है कि ईश्वर ‘हश्र’ (पुनरुत्थान) के दिन अदालत करेगा और सत्यतापूर्वक हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का पुरस्कार या दंड देगा। इसको कौन असंभव कह सकता है? इसमें कौन-सी बात बुद्धिसंगत नहीं है? बुद्धि तो स्वयं यह चाहती है कि कभी अल्लाह की अदालत हो और ठीक-ठीक सत्यतापूर्वक फ़ैसले किए जाएँ। हम देखते हैं कि एक व्यक्ति भलाई करता है और उसका कोई फ़ायदा उसको संसार में नहीं प्राप्त होता। एक व्यक्ति बुराई करता है और इससे कोई हानि उसको नहीं पहुँचती। यही नहीं बल्कि हम हज़ारों मिसालें ऐसी देखते हैं कि एक व्यक्ति ने भलाई की और उसे उल्टा नुक़सान हुआ और एक व्यक्ति ने बुराई की और वह भली-भाँति सुख भोगता रहा। इस प्रकार की घटनाओं को देखकर बुद्धि की यह माँग होती है कि कहीं न कहीं अच्छे मनुष्य को भलाई का और दुष्ट मनुष्य को दुष्टता का फल मिलना चाहिए।
अन्तिम चीज़ ‘स्वर्ग’ (जन्नत) और ‘नरक’ (जहन्नम) हैं।
इनका होना भी असंभव नहीं। यदि सूर्य और चन्द्रमा और मंगल और भूमि को ईश्वर बना सकता है, तो ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ न बना सकने की क्या दलील है? जब वह अदालत करेगा और लोगों को पुरस्कार और दंड देगा तो पुरस्कार पानेवालों के लिए कोई सम्मान और आनन्द और हर्ष का स्थान और दंड पानेवालों के लिए कोई अपमान और दुःख और कष्ट का स्थान भी होना चाहिए।
इन बातों पर जब आप विचार करेंगे तो आपकी बुद्धि स्वयं कह देगी मनुष्य के परिणाम के विषय में जितनी भी धारणाएँ संसार में पाई जाती हैं उनमें सबसे ज़्यादा दिल को लगती हुई धारणा यही है, और इसमें कोई चीज़ बुद्धि के विरुद्ध या असंभव नहीं है।
फिर जब ऐसी एक बात मुहम्मद (सल्ल॰) जैसे सच्चे नबी (पैग़म्बर) ने कही है, और इसमें सर्वथा हमारी भलाई है तो, बुद्धिमानी यह है कि इसपर विश्वास किया जाए, न यह कि यूँ ही अकारण बिना किसी तर्व$ और प्रमाण के सन्देह किया जाए, या रद्द कर दिया जाए।
Courtesy :
www.ieroworld.net
www.taqwaislamicschool.com
Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)