Husool-e-Ilm Ki Ahmiyat
January 22, 2016The Prophetic Message and Education
January 23, 2016ईमान (भाग-1)
‘ईमान’ का अर्थ:
ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है।
ईमान की इस परिभाषा से विदित है कि ईमान के बिना कोई मनुष्य मुस्लिम नहीं हो सकता। इस्लाम और ईमान में वही सम्बन्ध है जो वृक्ष और बीज में होता है। बीज के बिना तो वृक्ष उग ही नहीं सकता। हाँ, यह अवश्य हो सकता है कि बीज भूमि में बोया जाए, परन्तु भूमि ख़राब होने के कारण या जलवायु अच्छी प्राप्त न होने के कारण वृक्ष दोषयुक्त उगे। ठीक इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सिरे से ईमान ही न रखता हो तो यह किसी तरह संभव नहीं कि वह ‘‘मुस्लिम’’ हो। हाँ, यह अवश्य संभव है कि किसी के दिल में ईमान हो परन्तु अपने संकल्प की कमज़ोरी या अपूर्ण शिक्षा-दीक्षा और बुरे लोगों के संगत के प्रभाव से वह पूरा और पक्का मुस्लिम न हो।
आज्ञापालन के लिए ज्ञान और विश्वास की आवश्यकता:
पिछले अध्याय में आप जान चुके हैं कि इस्लाम वास्तव में पालनकर्ता (ईश्वर) के आज्ञापालन का नाम है। अब हम बताना चाहते हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ईश्वर की आज्ञा का पालन उस समय तक नहीं कर सकता, जब तक उसे कुछ बातों का ज्ञान न हो, और वह ज्ञान, विश्वास (Faith) की सीमा तक पहुँचा हुआ न हो।
सबसे पहले तो मनुष्य को ईश्वर की सत्ता पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए, क्योंकि यदि उसे यह विश्वास न हो कि ईश्वर है तो वह उसका आज्ञापालन कैसे करेगा। इसके साथ ईश्वरीय गुणों का ज्ञान भी ज़रूरी है। जिस व्यक्ति को यह मालूम न हो कि ईश्वर एक है और प्रभुत्व में कोई उसका साझी नहीं, वह दूसरों के सामने सिर झुकाने और हाथ फैलाने से कैसे बच सकता है? जिस व्यक्ति को इस बात का यक़ीन न हो कि ईश्वर सब-कुछ देखने और सुनने वाला है, और हर चीज़ की ख़बर रखता है, वह अपने आपको ईश्वर की अवज्ञा से कैसे रोक सकता है? इस बात पर विचार करने से आपको मालूम होगा कि विचार और स्वभाव और इस्लाम के सीधे मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य में जिन गुणों का होना आवश्यक है वे गुण उस समय तक उसमें नहीं आ सकते जब तक कि उसे ईश-गुणों की ठीक-ठीक जानकारी न हो और यह ज्ञान केवल जान लेने तक सीमित न रहे बल्कि उसे विश्वास के साथ दिल में बैठ जाना चाहिए, ताकि मनुष्य का मन उसके ज्ञान-विरोधी विचारों से, और उसका जीवन उसके ज्ञान के विरुद्ध आचरण करने से बच सके।
इसके बाद मनुष्य को यह भी मालूम होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का सही तरीक़ा क्या है? किस बात को अल्लाह पसन्द करता है, ताकि उसे अपनाया जाए, और किस बात को अल्लाह नापसन्द करता है, ताकि उससे बचा जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि मनुष्य ईश्वर के क़ानून और उसके विधान से भली-भाँति परिचित हो। उसके विषय में उसे पूरा विश्वास हो कि यही अल्लाह का क़ानून और विधान है और इसका अनुसरण करने से अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है, क्योंकि यदि उसे इसका ज्ञान ही न हो तो वह पालन किस चीज़ का करेगा?
और यदि ज्ञान तो हो परन्तु पूरा विश्वास न हो, या मन में यह भावना बनी हो कि इस क़ानून और विधान के अतिरिक्त दूसरा क़ानून और विधान भी ठीक हो सकता है, तो उसका भली-भाँति पालन कैसे कर सकता है?
फिर मनुष्य को इसका ज्ञान भी होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार न चलने और उसके पसन्द किए हुए नियम एवं विधान का पालन न करने का नतीजा क्या है और उसके आज्ञापालन का पुरस्कार क्या है?
इसके लिए ज़रूरी है कि आख़िरत (परलोक) के जीवन का, ईश्वर के न्यायालय में पेश होने का, अवज्ञा का दंड पाने का और आज्ञापालन पर इनाम पाने का पूरा ज्ञान और विश्वास हो। जो व्यक्ति आख़िरत के जीवन से अपरिचित है वह आज्ञापालन और अवज्ञा दोनों को निष्फल समझता है। उसका विचार तो यह है कि अंत में आज्ञपालन करने वाला और न करने वाला दोनों बराबर ही रहेंगे, क्योंकि दोनों मिट्टी हो जाएँगे। फिर उससे कैसे आशा की जा सकती है कि वह आज्ञापालन की पाबन्दियाँ और तकलीफ़ें उठाना स्वीकार कर लेगा और उन गुनाहों से बचेगा जिनसे इस संसार में कोई हानि पहुँचने का उसको भय नहीं है। ऐसे विश्वास के साथ मनुष्य ईश्वरीय नियम और क़ानून का पालन करने वाला कभी नहीं हो सकता।
इसी प्रकार वह व्यक्ति भी आज्ञापालन को दृढ़तापूर्वक अपना नहीं सकता जिसे आख़िरत के जीवन और अल्लाह की अदालत में पेश होने का ज्ञान तो है, परन्तु विश्वास नहीं, इसलिए कि सन्देह और दुविधा के साथ मनुष्य किसी बात पर टिका नहीं रह सकता। आप एक काम को दिल लगाकर उसी समय कर सकेंगे जब आपको विश्वास हो कि यह काम लाभप्रद है। और दूसरे काम से बचने में भी उसी समय स्थिर रह सकते हैं जब आपको पूरा विश्वास हो कि यह काम हानिप्रद है। अतएव मालूम हुआ कि एक तरीके़ पर चलने के लिए उसके फल और परिणाम का ज्ञान होना भी आवश्यक है। और यह ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो विश्वास की सीमा तक पहुँचा हुआ हो।
ईमान और इस्लाम की दृष्टि से समस्त मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं:
(1) जो ईमान रखते हैं और उनका ईमान उन्हें ईश्वर के आदेशों का पूर्ण रूप से अनुवर्ती बना देता है। जो बात ईश्वर को नापसन्द है वे उससे इस तरह बचते हैं जैसे कोई व्यक्ति आग को हाथ लगाने से बचता है और जो बात ईश्वर को पसन्द है उसे वे ऐसे शौक़ से करते हैं जैसे कोई व्यक्ति दौलत कमाने के लिए शौक़ से काम करता है। ये वास्तविक मुस्लिम हैं।
(2) जो ‘ईमान’ तो रखते हैं परन्तु उनके ईमान में इतना बल नहीं कि उन्हें पूर्ण रूप से अल्लाह का आज्ञाकारी बना दे। ये यद्यपि निम्न श्रेणी के लोग हैं, परन्तु फिर भी मुस्लिम ही हैं। ये यदि ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना करते हैं तो अपने अपराध की दृष्टि से दंड के भागी हैं; परन्तु उनकी हैसियत अपराधी की है, विद्रोही की नहीं है। इसलिए कि ये सम्राट को सम्राट मानते हैं और उसके क़ानून को क़ानून होना स्वीकार करते हैं।
(3) वे जो ईमान नहीं रखते परन्तु देखने में वे ऐसे कर्म करते हैं जो ईश्वरीय क़ानून के अनुकूल दिखाई देते हैं। ये वास्तव में विद्रोही हैं। इनका वाह्य सत्कर्म वास्तव में ईश्वर का आज्ञापालन और अनुवर्तन नहीं है। अतः इसका कुछ भी मूल्य नहीं। इनकी मिसाल ऐसे व्यक्ति जैसी है जो सम्राट को सम्राट नहीं मानता और उसके क़ानून को क़ानून ही नहीं स्वीकार करता। यह व्यक्ति यदि देखने में कोई ऐसा काम कर रहा हो जो क़ानून के विरुद्ध न हो, तो आप यह नहीं कह सकते कि वह सम्राट के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने वाला और उसके क़ानून का अनुवर्ती है। उसकी गणना तो प्रत्येक अवस्था में विद्रोहियों में ही होगी।
(4) वे जो ईमान भी नहीं रखते और कर्म की दृष्टि से भी दुष्ट और दुराचारी हैं। ये निकृष्टतम श्रेणी के लोग हैं, क्योंकि ये विद्रोही भी हैं और बिगाड़ पैदा करने वाले भी।
मानवीय श्रेणी के इस वर्गीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ईमान वास्तव में मानवीय सफलता का आधार है। इस्लाम, चाहे वह पूर्ण हो या अपूर्ण, केवल ईमान रूपी बीज से पैदा होता है। जहाँ ईमान न होगा, वहाँ ईमान की जगह ‘कुफ़्र’ होगा जिसका दूसरा अर्थ ईश्वर के प्रति विद्रोह है, चाहे निकृष्टतम कोटि का विद्रोह हो या न्यूनतम स्तर का।
ज्ञान-प्राप्ति का साधन:
ईशाज्ञापालन के लिए ‘ईमान’ की आवश्यकता मालूम हो जाने के बाद अब प्रश्न यह है कि ईश्वर के गुण और उसके पसन्दीदा क़ानून और आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में सच्चा ज्ञान और ऐसा ज्ञान जिस पर विश्वास किया जा सके, कैसे प्राप्त हो सकता है?
पहले हम बयान कर चुके हैं कि जगत में हर तरफ़ ईश्वर की कारीगरी की निशानियाँ मौजूद हैं, जो इस बात की गवाह हैं कि इस कारख़ाने को एक ही कारीगर ने बनाया है और वही इसको चला रहा है और इन निशानियों में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर के समस्त गुणों की छवि दीख पड़ती है। उसकी तत्वदर्शिता (Wisdom) उसका ज्ञान, उसका सामथ्र्य, उसकी दयालुता, उसकी पालन-क्रिया, उसका प्रकोप, तात्पर्य यह है कि कौन-सा गुण है जिसकी गरिमा उसके कामों से व्यक्त न होती हो, परन्तु मनुष्य की बुद्धि और उसकी योग्यता से इन चीज़ों को देखने और समझने में बहुधा भूल हुई है। ये समस्त निशानियाँ आँखों के सामने मौजूद हैं परन्तु फिर भी किसी ने कहा: ईश्वर दो हैं और किसी ने कहा तीन हैं, किसी ने अनगिनत ईश्वर मान लिए। किसी ने प्रभुत्व के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कहा: एक वर्षा का प्रभु है, एक वायु का प्रभु है, एक अग्नि का ईश्वर है, तात्पर्य यह कि एक-एक शक्ति के अलग-अलग ईश्वर हैं और एक ईश्वर इन सबका नायक है। इस तरह ईश्वर की सत्ता और उसके गुणों को समझने में लोगों की बुद्धि ने बहुत धोखे खाए हैं जिनके विवरण का यहाँ मौक़ा नहीं।
‘आख़िरत’ (परलोक) के जीवन के विषय में भी लोगों ने बहुत-से असत्य विचार निर्धारित किए। किसी ने कहा कि मनुष्य मर कर मिट्टी हो जाएगा, फिर उसके बाद कोई जीवन नहीं। किसी ने कहा मनुष्य बार-बार इस दुनिया में जन्म लेगा और अपने कर्मों के अनुसार दंड या पुरस्कार प्राप्त करेगा।
ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए जिस क़ानून की पाबन्दी आवश्यक है उसको तो स्वयं अपनी बुद्धि से निर्धारित करना और भी अधिक कठिन है।
यदि मनुष्य के पास अत्यंत ठीक बुद्धि हो और उसकी ज्ञान सम्बन्धी योग्यता अत्यन्त उच्चकोटि की हो, तब भी वर्षों के अनुभवों और सोच-विचार के पश्चात् वह मात्रा किसी हद तक ही इन बातों के बारे में कोई राय क़ायम कर सकेगा। और फिर भी उसको पूर्ण विश्वास न होगा कि उसने पूर्ण रूप से सत्य को जान लिया है, यद्यपि बुद्धि और ज्ञान की पूर्ण रूप से परीक्षा तो इसी प्रकार हो सकती थी कि मनुष्य को बिना किसी मार्गदर्शन के छोड़ दिया जाता, फिर जो लोग अपनी कोशिश और योग्यता से सत्य और सच्चाई तक पहुँच जाते वही सफल होते और जो न पहुँचते वे असफल रहते, परन्तु ईश्वर ने अपने बन्दों को ऐसी कठिन परीक्षा में नहीं डाला। उसने अपनी दया से स्वयं मनुष्यों ही में ऐसे मनुष्य पैदा किए जिनको अपने गुणों का यथार्थ ज्ञान दिया। वह तरीक़ा भी बताया जिससे मनुष्य संसार में ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन-यापन कर सकता है।
आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में भी यथार्थ ज्ञान प्रदान किया और उन्हें आदेश दिया कि दूसरे मनुष्यों तक यह ज्ञान पहुँचा दें। ये अल्लाह के पैग़म्बर (सन्देष्टा) हैं। जिस साधन से अल्लाह ने उनको ज्ञान दिया है उसका नाम वह्य (Revelation, ईशप्रकाशना) है। और जिस ग्रंथ में उन्हें यह ज्ञान दिया गया है उसको ईश्वरीय ग्रंथ और अल्लाह का कलाम (ईश-वाणी) कहते हैं। अब मनुष्य और उसकी योग्यता की परीक्षा इसमें है कि वह पैग़म्बर के पवित्र जीवन को देखने और उसकी उच्च शिक्षा पर विचार करने के पश्चात् उस पर ईमान लाता है या नहीं। यदि वह न्यायशील और सत्य-प्रिय है तो सच्ची बात और सच्चे मनुष्य की शिक्षा को मान लेगा और परीक्षा में सफल हो जाएगा। और यदि उसने न माना तो इन्कार का अर्थ यह होगा कि उसने सत्य और सच्चाई को समझने और स्वीकार करने की क्षमता खो दी है। यह इन्कार उसको परीक्षा में असफल कर देगा और ईश्वर और उसके क़ानून और आख़िरत के जीवन के विषय में वह कभी सही ज्ञान प्राप्त न कर सकेगा।
Courtesy :
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