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कुफ़्र और काफ़िर शब्द की वास्तविकता

1aaaaइस्लाम में ‘कुफ़्र’ और ‘काफ़िर’ कुछ विशेष पारिभाषिक शब्दों में से दो शब्द हैं। इसका एक विशेष अर्थ है, लेकिन दुख की बात यह है कि विभिन्न पारिभाषिक शब्दों की तरह इस शब्द को भी ग़लत अर्थ देकर ऐसा प्रभाव पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जो इसके अस्ल (मूल) अर्थ से बहुत दूर है। शब्द ‘काफ़िर’ के बारे में इस तरह बताया जाता है जैसे इसमें ग़ैर-मुस्लिम भाइयों के लिए नफ़रत, तिरस्कार और अपमान का पहलू है। यह शब्द जैसे एक अपमान बोधक शब्द है। इस्लाम काफ़िर कहकर ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को मूल मानव-अधिकारों से वंचित कर देता है और जीवित रहने का अधिकार भी देना नहीं चाहता। यह बात सच्चाई के बिल्कुल विपरीत है।

क़ुरआन में काफ़िर, कुफ़्र और शिर्क के शब्द बहुत-सी जगहों पर प्रयुक्त हुए हैं। कुफ़्र  के अर्थ अवसर के अनुरूप विभिन्न होते हैं। जैसे इन्कार, अवज्ञा, कृतघ्नता, निरादर और नाक़द्री, सच्चाई को छिपाना और अधर्म आदि। कुफ़्र करने वाले को अरबी भाषा में ‘काफ़िर’ कहते हैं।

‘काफ़िर’ शब्द व्याकरण की दृष्टि से गुणवाचक संज्ञा है, यह अपमानबोधक शब्द नहीं है। यह शब्द उन लोगों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है जिनके सामने ईश्वरीय धर्म इस्लाम की शिक्षाएं पेश की गईं और उन्होंने किसी भी कारण से उनको ग़लत समझा और उनका इन्कार कर दिया। कुफ़्र का शब्द उन लोगों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है, जो अपने को इस्लाम का अनुयायी और मुसलमान कहते थे, परन्तु इस्लाम के प्रति निष्ठावान न थे।

उदाहरणार्थ ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का कथन है:

‘‘जिस (मुसलमान) ने जान-बूझकर नमाज़ छोड़ दी उसने कुफ़्र किया।’’ (हदीस)

कु़रआन मजीद में कहा गया है—

‘‘जो लोग अल्लाह के भेजे हुए निर्देशों के अनुसार फ़ैसला न करें वे काफ़िर (अधर्मी) हैं।’(क़ुरआन, 5:44)

उपर्युक्त शिक्षाओं में संबोधन साफ़ तौर पर उन लोगों से है, जो इस्लाम के अनुयायी होने का दावा करते थे और अपने को मुसलमान कहते थे, परन्तु वे इस्लाम के प्रति निष्ठावान न थे।

कु़रआन में एक जगह है—

‘‘जिसने ताग़ूत (काल्पनिक देवों) का कुफ़्र (इन्कार) किया और अल्लाह को मान लिया उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटने वाला नहीं।’’ (क़ुरआन, 2:256)

क़ुरआन की इस आयत में शब्द ‘कुफ़्र’ इन्कार के अर्थ में है और मुसलमानों से ताग़ूत (काल्पनिक देवों) का इन्कार कराना अपेक्षित है।

‘कुफ़्र’ अरबी भाषा का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ किसी चीज़ को छिपाना या ढांकना है। इसी तरह ‘कुफ़्र’ कृतघ्नता या नाशुक्री के अर्थ में भी आता है। अर्थात् कोई व्यक्ति किसी की कृतघ्नता या एहसानफ़रामोशी करता है, तो जैसे वह अपने उपकार करने वाले के उपकार को छिपा देता है और उस पर परदा डाल देता है। इसी तरह ‘कुफ़्र’ का एक अर्थ यह भी है कि दुनिया को पैदा करने वाले ने अपने ईशदूतों को भेजकर अपने बन्दों के लिए सत्यमार्ग पर चलने का जो आदेश दिया है उस आदेश को मानने से इन्कार करना।

पवित्र क़ुरआन में ‘कुफ़्र’ शब्द का प्रयोग कई दूसरे अर्थों में भी हुआ है और ईमान तथा इस्लाम के मुक़ाबले में एक पारिभाषिक शब्द के रूप में भी। जैसे, किसान खेती के दौरान बीज को ज़मीन के अन्दर छिपा देता है, इसलिए किसान को भी काफ़िर (छिपाने वाला) कहा गया है। कुछ जगहों में कृतज्ञता (शुक्र) की तुलना में अकृतज्ञता (नाशुक्री) के अर्थ में भी प्रयोग हुआ है, इसलिए पैदा करने वाले के उपकारों के उत्तर में कृतघ्नता का रवैया (सुलूक) ‘कुफ़्र’ है और ऐसा करने वाला व्यक्ति ‘काफ़िर’ कहलाता है।

कु़रआन में एक दूसरी जगह है—

‘‘जान लो कि यह सांसारिक जीवन मात्र एक खेल और तमाशा है और एक साज-सज्जा और तुम्हारा आपस में एक-दूसरे पर गर्व करना और धन और संतान में एक-दूसरे से बढ़ा हुआ ज़ाहिर करना। इसकी मिसाल ऐसी है कि बारिश हुई तो उससे पैदा होने वाली खेती से कुफ़्फ़ार (किसान) ख़ुश हो गए। फिर वही खेती पक जाती है और तुम देखते हो कि वह पीली हो जाती है। फिर वह भुस बनकर रह जाती है।’’ (क़ुरआन, 57:20)

क़ुरआन की इस आयत में शब्द कुफ़्फ़ार(काफ़िरों) किसान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

क़ुरआन में एक जगह परमेश्वर कहता है—

‘‘तुम मुझे याद रखो, मैं तुम्हें याद रखूंगा और मेरा आभार प्रकट करते रहो और मेरे प्रति कुफ़्र (अकृतज्ञता) न दिखलाओ।’’ (क़ुरआन, 2:152)

क़ुरआन की इस आयत में ‘कुफ़्र’ शब्द ‘अकृतज्ञता’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

क़ुरआन में जहां कहीं भी ईश्वर और उसकी शिक्षाओं और उसके आदेशों का इन्कार करने वालों के लिए ‘काफ़िर’ शब्द प्रयुक्त हुआ है तो उसका उद्देश्य गाली, घृणा और निरादर नहीं है, बल्कि उनके इन्कार करने के कारण वास्तविकता प्रकट करने के लिए ऐसा कहा गया है। ‘काफ़िर’ शब्द हिन्दू का पर्यायवाची भी नहीं है जैसा कि दुष्प्रचार किया जाता है। ‘काफ़िर’ शब्द का लगभग पर्यायवाची शब्द ‘नास्तिक’ है।

पवित्र क़ुरआन में अधिकतर कुफ़्र शब्द का प्रयोग ईमान के मुक़ाबले में इन्कार के अर्थ में हुआ है। धर्म पर विश्वास न रखने वाले लोगों के लिए हर धर्म ने विशेष शब्दावली का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए, जो व्यक्ति हिन्दू परिवार में पैदा हुआ है, लेकिन धर्म में विश्वास नहीं रखता है, उसे ‘नास्तिक’ कहते हैं।

इसी तरह हर धर्म में उस धर्म की मौलिक धारणाओं एवं शिक्षाओं को मानने वालों और न मानने वालों के लिए अलग-अलग विशेष शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं। जैसे हिन्दू धर्म में उन लोगों के लिए नास्तिक, अनार्य, असभ्य, दस्यु और मलिच्छ शब्द प्रयुक्त हुए हैं जो हिन्दू धर्म के अनुयायी न हों।

कुफ़्र का एक अर्थ है सच्चाई पर परदा डालना। सारी नेमतें (कृपादान) अल्लाह, ईश्वर की दी हुई हैं। इस सच्चाई पर परदा डालकर इन नेमतों का सम्बन्ध दूसरों से जोड़ना, अल्लाह को छोड़कर दूसरों का आभारी बनना कुफ़्र का तरीक़ा है।

‘काफ़िर’ शब्द वास्तव में ईश्वरीय सत्य धर्म को न मानने वालों और मानने वालों के बीच अन्तर को स्पष्ट करने के लिए है, न कि गाली देने या निरादर करने के लिए।

अब यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शब्द ‘काफ़िर’ में तिरस्कार और अपमान का कोई पहलू नहीं है। इस्लाम सैद्धांतिक रूप से सत्य धर्म (दीने-हक़) को मानने और न मानने वालों के बीच अन्तर स्पष्ट करता है, ताकि इस्लामी आदेशों को लागू करने के मामले में दोनों के साथ अलग-अलग बर्ताव किया जा सके। इस्लाम को मानने वालों को इसका पाबन्द (नियमबद्ध) बनाया जा सके और न मानने वालों को इसकी पाबन्दी (नियमबद्धता) से अलग रखा जाए। इस्लाम की मूल शिक्षाओं को न मानने वाले व्यक्ति को काफ़िर कहकर इस्लाम ने वास्तव में उसकी पोज़ीशन स्पष्ट कर दी है, लेकिन इससे इस्लामी राज्य या समाज में उसके मौलिक अधिकारों पर कोई आंच नहीं आती और दुनिया के मामलों में उसके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।

ईश्वर ने इन्सान को सबसे सुन्दर रूप-रंग में पैदा किया है। ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान कीं और सारी ज़रूरतें पूरी कीं। इन सारी नेमतों (कृपादानों) की मांग है कि लोग अल्लाह पर ईमान लाएं, जिसने उनको ये नेमतें दी हैं। इसी तरह अल्लाह के सभी पैग़म्बर (ईशदूत), विशेष रूप से आख़िरी ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर भी ईमान लाएं और मरने के बाद परलोक की हमेशा-हमेशा रहने वाली ज़िन्दगी और वहां सभी इन्सानों के अच्छे-बुरे कर्मों के बारे में पूछताछ तथा हिसाब-किताब पर ईमान लाएं। विशुद्ध रूप से अल्लाह की इबादत (उपासना) और बन्दगी करें तथा उसके आदेशों का पालन करें, जो लोग अल्लाह की नेमतों (कृपादानों) से लाभ उठाते हैं, लेकिन उस पर ईमान नहीं लाते, या उसकी ख़ुदाई (ईश्वरत्व) में दूसरों को साझी ठहराते हैं, वही लोग अकृतज्ञ और नाशुक्रे हैं और कुफ़्र (इन्कार) का रवैया अपनाते हैं। 

अल्लाह के आदेशों को मालूम करने का साधन अल्लाह के आख़िरी ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर अवतरित पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करना है। पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं का व्यावहारिक आदर्श ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की जीवनी में मिलता है। ये दोनों चीज़ें सुरक्षित और विशुद्ध रूप में आज भी मौजूद हैं, जो इसकी सत्यता का प्रमाण है।


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Courtesy :
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