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हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) – विश्व नेता

vishva netaकिसी व्यक्ति को विश्व-नेता कहने के लिए कुछ मानदंड निर्धारित होने चाहिएँ और फिर उस व्यकित का, उन मानदंडों पर आकलन कर के देखना चाहिए कि वह उन पर पूरा उतरता है या नहीं।

पहला मानदंड यह होना चाहिए कि उसने किसी विशेष जाति, वंश या वर्ग की भलाई के लिए नहीं, बल्कि सारे संसार के मनुष्यों की भलाई के लिए काम किया हो। एक देश-प्रेमी या राष्ट्रवादी नेता का आप इस रूप से जितना चाहें आदर कर लें कि उसने अपने लोगों की बड़ी सेवा की, किन्तु आप अगर उसके देशवासी या सजाति नहीं हैं तो वह किसी हालत में आपका नेता नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति का प्रेम, शुभ-चिंता और कार्य सब कुछ चीन या स्पेन तक सीमित हो, एक हिन्दुस्तानी को उससे क्या संबंध कि वह उसे अपना नेता माने, बल्कि यदि वह अपनी जाति को दूसरों से श्रेष्ठ ठहराता हो और दूसरों को गिराकर अपनी जाति को उठाना चाहता हो तो दूसरे लोग उसे घृणा करने पर बाध्य होंगे। समस्त जातियों के लोग किसी एक व्यक्ति को अपना नेता केवल उसी दशा में मान सकते हैं जबकि उसकी दृष्टि में सब जातियां और सब मनुष्य समान हों, वह सबका समान शुभ चिंतक हो और अपनी शुभ कामना में एक को दूसरे पर प्रधानता न दे।

दूसरा मुख्य मानदंड यह है कि उसने ऐसे सिद्धांत पेश किए हों जो सारे संसार के मनुष्यों का पथ-प्रदर्शन करते हों और जिनमें मानव-जीवन की सारी समस्याओं का समाधान हो।
नेता का अर्थ है पथ-प्रदर्शक। नेता की आवश्यकता इसलिए है कि वह कल्याण और भलाई का रास्ता बताए। अतः संसार का नेता वही हो सकता है जो सारे संसार के मनुष्यों को ऐसा मार्ग बताए जिसमें सबका कल्याण हो।

तीसरा मानदंड यह है कि उसका पथ-प्रदर्शन किसी विशेष काल के लिए न हो, बल्कि हर काल और हर स्थिति में समान रूप से लाभदायक और समान रूप से शुद्ध और समान रूप से अनुकरणीय हो। जिस नेता का पथ-प्रदर्शन एक काल में लाभकारी और दूसरे काल में निरर्थक हो उसको विश्व-नेता नहीं कहा जा सकता। विश्व का नेता सिर्प़$ वही है, कि जब तक संसार शेष है, उसका पथ-प्रदर्शन भी लाभदायक रहे।

चौथा मुख्य मानदंड यह है कि उसने केवल सिद्धांत ही पेश करने पर बस न किया हो, बल्कि अपने पेश किए हुए सिद्धांतों को जीवन में कार्यान्वित करके दिखा दिया हो और उनके आधार पर एक जीता-जागता समाज निर्मित कर दिया हो। केवल सिद्धांत पेश करने वाला व्यक्ति अधिक-से-अधिक एक विचारक हो सकता है, नेता नहीं हो सकता। नेता होने के लिए आवश्यक है कि आदमी अपने सिद्धांतों को कार्यान्वित करके दिखा दे।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)—मानदण्डों की कसौटी पर

आइए, अब देखें कि उपरोक्त चारों मानदंडों पर वह व्यक्ति कहाँ तक पूरा उतरता है, जिसको हम ‘‘विश्व-नेता’’ कहते हैं!

पहले मानदंड को पहले लीजिए।

आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन का अध्ययन करें तो एक ही दृष्टि में महसूस कर लेंगे कि यह किसी राष्ट्रवादी या देश-प्रेमी का जीवन नहीं है, बल्कि एक मानव-प्रेमी और विश्वव्यापी दृष्टिकोण रखने वाले मनुष्य का जीवन है। उनकी दृष्टि में सारे मनुष्य समान थे, किसी परिवार, किसी वर्ग, किसी जाति, किसी वंश, किसी देश के विशेष लाभ से उन्हें कोई संबंध न था। अमीर और ग़रीब, ऊँचे और नीचे, काले और गोरे, अरब और ग़ैर-अरब, एशियाई और यूरोपीय, सीरियायी और आर्य सबको वे इस वास्तविक रूप में देखते थे कि सब एक ही मानव-जाति के अंग हैं। उनके मुख से जीवन भर कोई एक शब्द या एक वाक्य भी ऐसा नहीं निकला और न जीवन भर में कोई काम उन्होंने ऐसा किया जिससे यह सन्देह किया जा सकता हो कि उन्हें एक मानव-वर्ग के विरुद्ध दूसरे मानव-वर्ग के लाभ से विशेष संबंध है। यही कारण है कि उनके जीवन ही में हबशी, ईरानी, रूमी, मिस्री और इसराईली उसी प्रकार उनके कामों में सहायक रहे जिस प्रकार अरब और उनके बाद संसार के हर कोने में हर वंश और हर जाति के मनुष्यों ने उनको उसी प्रकार अपना नेता स्वीकार किया जिस प्रकार स्वयं उनकी जाति ने। यह उसी शुद्ध मनुष्यता ही का चमत्कार तो है कि आज आप एक भारतवासी के मुख से उस महान पुरुष की प्रशंसा सुन रहे हैं जिसका सदियों पहले अरब में जन्म हुआ था।

अब दूसरे और तीसरे मानदण्ड को एक साथ लीजिए।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने विशेष जातियों और विशेष देशों की सामयिक और स्थानीय समस्याओं पर ही विचार प्रकट करने में अपना समय नष्ट नहीं किया, बल्कि अपनी पूर्ण शक्ति संसार में मानवता की उस बड़ी गुत्थी सुलझाने में व्यय कर दी जिससे सारे मनुष्यों की कुल छोटी-छोटी समस्याएँ भी स्वयं सुलझ जाती हैं। वह बड़ी समस्या क्या है? वह केवल यह है कि सृष्टि का विधान जिस सिद्धांत पर क़ायम है, मानव-जीवन की व्यवस्था भी उसी के अनुसार हो। कयोंकि मनुष्य इस सृष्टि का एक अंश है और अंश की गति का सम्पूर्ण के विरुद्ध होना ही विनाश का कारण है।

यदि आप इस बात को समझना चाहते हैं तो इसका आसान तरीक़ा यह है कि अपनी दृष्टि को तनिक प्रयत्न करके समय और स्थान के बंधनों से मुक्त कर लीजिए। भू-मंडल पर इस प्रकार दृष्टि डालिए कि आदि से आज तक और भविष्य से अन्त काल तक बसने वाले सारे मनुष्य एक ही समय में आपके सामने हों, फिर देखिए कि मनुष्य के जीवन में बिगाड़ के जितने रूप उत्पन्न हुए हैं या होने संभव हैं उन सबकी जड़ क्या है और क्या हो सकती है?

इस प्रश्न पर आप जितना विचार करेंगे, जितनी छानबीन और अन्वेषण करेंगे, निष्कर्ष यही निकलेगा कि मनुष्य का ईश्वर से विद्रोह सारी बुराइयों की जड़ है; इसलिए कि ईश्वर का विद्रोही होकर मनुष्य दो स्थितियों में से कोई एक ही स्थिति ग्रहण करता है। या तो वह अपने को स्वतंत्र और अनुत्तरदाई समझकर मनमाने कार्य करने लगता है और यह चीज़ उसे अत्याचारी बना देती है; या फिर वह ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों की आज्ञा के सामने सिर झुकाने लगता है और इससे संसार में उपद्रव के अगणित मार्ग उत्पन्न हो जाते हैं। अब यह सोचने की बात है कि ईश्वर से बेपरवाह होकर ये बुराइयाँ क्यों उत्पन्न होती हैं? इसका सीधा और साफ़ उत्तर यह है कि ऐसा करना वास्तविकता के विरुद्ध है, इसलिए उसका परिणाम बुरा निकलता है।

यह सारी सृष्टि वास्तव में ईश्वर का साम्राज्य है। पृथ्वी, चन्द्र, वायु, जल, प्रकाश सब ईश्वर की मिलकियत हैं और मनुष्य इस साम्राज्य में पैदाइशी दास की हैसियत रखता है। यह पूरा साम्राज्य जिस व्यवस्था पर स्थापित है और जिस व्यवस्था पर चल रहा है यदि मनुष्य उसका एक भाग होते हुए भी उसके विरुद्ध रवैया अपनाए तो निःसन्देह उसका ऐसा रवैया विनाशकारी परिणाम को उत्पन्न करेगा। उसका यह समझना कि मेरे ऊपर कोई सर्वोच्च अधिकारी नहीं है, जिसके सामने मैं उत्तरदाई हूँ, वास्तविकता के विरुद्ध है; इसलिए जब वह स्वतंत्रा बनकर स्वेच्छाचारी रूप से काम करता है और अपने जीवन का नियम स्वयं आप बनाता है तो परिणाम बुरा निकलता है। इसी प्रकार उसका ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को अधिकार और प्रभुत्व का मालिक मानना और उससे भय या लालच रखना और उसके प्रभुत्व के आगे झुक जाना भी वास्तविकता के विरुद्ध है। वास्तव में इस पूरी सृष्टि में ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी यह हैसियत नहीं रखता। अतः इसका परिणाम भी बुरा ही निकलता है। ठीक परिणाम निकलने की सूरत इसके अतिरिक्त कोई और नहीं है कि पृथ्वी और आकाश में जो वास्तविक शासक है मनुष्य उसी के आगे सिर झुकाए। अपनी सत्ता और स्वतंत्राता को उसके हवाले कर दे और अपने आज्ञापालन और अपनी बन्दगी को उसके लिए शुद्ध कर दे। अपने जीवन का विधान स्वयं बनाने या दूसरों से ग्रहण करने के स्थान पर उससे ग्रहण करना वह बुनियादी सुधार की योजना है, जिसे हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने मानव-जीवन के लिए पेश की है। यह एशिया और यूरोप के बंधन से मुक्त है। पृथ्वी के ऊपर जहाँ-जहाँ मनुष्य आबाद हैं, यही एक सुधार-योजना उनके भ्रष्ट जीवन को शुद्ध कर सकती है और यह योजना भूत और भविष्य के बंधन से भी मुक्त है। डेढ़ हज़ार वर्ष पहले यह जितनी शुद्ध और लाभदायक थी उतनी ही आज भी है, और उतनी ही दस हज़ार, या लाखों वर्ष बाद भी रहेगी।

अब चौथा और अन्तिम मानदंड बाक़ी रह जाता है।

यह ऐतिहासिक सत्य है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने केवल एक काल्पनिक योजना ही पेश नहीं की, बल्कि उस योजना पर एक जीवित और जागरूक समाज निर्मित करके दिखा दिया। उन्होंने 23 वर्ष के अल्पकाल में लाखों मनुष्यों को ईश्वर के शासन के आगे आज्ञाशीष झुकाने पर तैयार कर दिया, उनसे उनकी स्वेच्छाचारिता और स्वच्छन्दता भी छुड़ाई और ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों की बन्दगी भी। फिर उनको एकत्रित करके शुद्ध ईश्वरीय आज्ञापालन पर एक नई आचार-व्यवस्था, एक नई सांस्कृतिक व्यवस्था, एक नई सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था बनाई और उन सारी व्यवस्थाओं को व्यवहार में लाकर सारे संसार को दिखा दिया कि वह जो सिद्धांत पेश कर रहे हैं उसके आधार पर वै$सा जीवन बनता है और दूसरे सिद्धांतों के जीवन के सम्मुख वह कितना उपयुक्त, कितना पवित्र और कितना शुद्ध है। यह वह कृतित्व और कारनामा है जिसके आधार पर हम हज़रत मुहम्मद (उन पर ईश्वर की दया और कृपा हो) को ‘‘विश्व-नेता’’ कहते हैं। उनका यह कार्य किसी विशेष जाति के लिए न था, समस्त मानव-जाति के लिए था। यह मानवता की संयुक्त धरोहर है जिस पर किसी का अधिकार किसी से कम और अधिक नहीं है। जो चाहे इससे लाभ उठाए।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) विश्व-उद्धारक

थोड़ी देर के लिए वास्तविक आँखें बन्द करके कल्पना की आँखें खोल लीजिए और एक हज़ार चार सौ वर्ष पीछे पलट कर संसार की स्थिति पर दृष्टि डालिए। यह वैसा संसार था? मनुष्य-मनुष्य के बीच विचारों के आदान-प्रदान के साधन कितने कम थे। देशों और जातियों के बीच संबंध के साधन कितने सीमित थे। मनुष्य की जानकारी कितनी कम थी। उसके विचार कितने संकुचित थे। उस पर भ्रांति और पशुत्व का कितना प्रभाव था। अज्ञानता के अंधकार में ज्ञान का प्रकाश कितना मद्धिम था और इस अंधकार को धकेल-धकेल कर यह प्रकाश कितनी कठिनाइयों के साथ पै$ल रहा था।

संसार में न तार था, न टेलीफ़ोन था, न रेडियो था, न रेल, न हवाई जहाज़, न प्रेस थे और न प्रकाशन-गृह थे। न स्कूल और कॉलेज थे, न पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं, न अधिकता से किताबें लिखी जाती थीं, न अधिकता से उनका प्रकाशन होता था। उस काल के एक विद्वान की जानकारी भी कुछ पहलुओं से आजकल के एक साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कम थी। उस काल की ऊँची सोसाइटी का मनुष्य भी आधुनिक काल के एक मज़दूर की अपेक्षा कम सभ्य था। उस काल का एक उदार विचार-मनुष्य भी आजकल के अनुदार मनुष्य से भी अधिक अनुदार था। जो बातें आज सर्वसाधारण को ज्ञात हैं वे उस काल में वर्षों के परिश्रम ओर खोज और छानबीन के पश्चात् भी कठिनता से ज्ञात हो सकती थीं। जो जानकारी आज प्रकाश की तरह वातावरण में फैली हुई है और बच्चे को होश संभालते ही प्राप्त हो जाती है, उसके लिए उस काल में सैकड़ों मील की यात्रा की जाती थी और पूरी उम्र उसकी खोज में बीत जाती थी। जिन बातों को आज भी भ्रान्तिमूलक समझा जाता है वे उस काल की सच्चाइयाँ थीं। जिन कार्यों को आज असभ्य और बर्बरतापूर्ण कहा जाता है वे उस काल के सामान्य कार्य थे। जिन रीतियों से आज मनुष्य का हृदय घृणा करता है, वे उस काल के आचरण में न केवल उचित समझी जाती थीं बल्कि कोई व्यक्ति यह सोच भी न सकता था कि उनके विरुद्ध भी कोई प्रणाली हो सकती है। मनुष्य की, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं की पूजा-भावना इतनी बढ़ी हुई थी कि वह किसी वस्तु में तब तक कोई सच्चाई, कोई महानता और कोई पवित्रता स्वीकार ही नहीं कर सकता था जब तक वह प्रकृति से ऊपर न हो, स्वभाव के विरुद्ध न हो, असाधारण न हो; यहाँ तक कि मनुष्य अपने आपको इतना हीन समझता था कि किसी मनुष्य का ईश्वर तक पहुँचा हुआ होना और ईश्वर तक पहुँचे हुए किसी व्यक्ति का मनुष्य होना उसकी कल्पना की पहुँच से बहुत दूर था। उस अंधकारमय युग में धरती का एक कोना ऐसा था जहाँ अंधकार का प्रभुत्व और भी बढ़ा हुआ था। जो देश उस काल की सभ्यता की कसौटी के अनुसार सभ्य थे, उनके बीच अरब का देश सबसे अलग-थलग पड़ा हुआ था। उसके इर्द-गिर्द ईरान, मिस्र और रोम देशों में विद्या, कला और सभ्यता और संस्कृति का कुछ प्रकाश पाया जाता था, किन्तु रेत के बड़े-बड़े समुद्रों ने अरब को उनसे अलग कर रखा था। अरब सौदागर ऊँटों पर महीनों की राह चलकर उन देशों में व्यापार के लिए जाते थे और केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान अथवा विनिमय करके लौट आते थे, विद्या और संस्कृति का प्रकाश उनके साथ न आता था।

उनके देश में न कोई पाठशाला थी और न पुस्तकालय। न लोगों में विद्या की चर्चा थी, न विद्या और कला से कोई अनुराग था। सारे देश में गिनती के कुछ व्यक्ति थे, जिन्हें कुछ लिखना-पढ़ना आता था। किन्तु वे भी इतना नहीं कि उस काल की विद्या, कला और शिल्प के ज्ञाता होते। उनके पास एक उच्च कोटि की भाषा अवश्य थी, जिसमें ऊँचे विचारों के व्यक्त करने की असाधारण शक्ति थी। उनमें उच्च कोटि की साहित्यिक अभिरुचि भी विद्यमान थी, किन्तु उनके साहित्य का जो थोड़ा हिस्सा हम तक पहुँचा है उसको देखने से ज्ञात होता है कि उनका ज्ञान कितना सीमित था। सभ्यता और संस्कृति में उनका दर्जा कितना नीचा था, उन पर भ्रमयुक्त भावनाओं का कितना प्रभुत्व था? उनके विचारों और स्वभावों में कितनी अज्ञानता और पाशविकता थी, उनकी नैतिक कल्पनाएँ कितनी भद्दी थीं।

वहाँ कोई सुव्यवस्थित राज न था। कोई विधान और नियम न था। हर गोत्र अपने स्थान पर स्वाधीन था और केवल ‘‘जंगल के नियम’’ का पालन किया जाता था, जिसका जिस पर वश चलता उसे मार डालता और उसके धन पर अधिकार जमा लेता। यह बात एक अरब बद्दू की समझ से परे थी कि जो व्यक्ति उसके गोत्र का नहीं उसे वह क्यों न मार डाले और उसके धन पर क्यों न अधिकार कर बैठे?

आचरण, नैतिकता और संस्कृति व सभ्यता की जो कुछ भी कल्पनाएँ उन लोगों में थीं वे अत्यंत तुच्छ और सर्वथा भद्दी थीं। पवित्र और अपवित्र, उचित और अनुचित, शिष्ट और अशिष्ट की पहचान से वे लगभग अनभिज्ञ थे। उनका जीवन घृणित था। उनका आचरण बर्बरतापूर्ण था। व्यभिचार, जुआ, शराब, चोरी, डाका, हत्या और हिंसा उनके जीवन के साधारण कार्य थे। वे एक-दूसरे के सामने निःसंकोच नंगे हो जाते थे। उनकी स्त्रियाँ तक नंगी होकर काबा की परिक्रमा करती थीं। वे अपनी लड़कियों को अपने हाथ से जीवित धरती में गाड़ देते थे, केवल इस मूर्खतापूर्ण धारणा पर कि कोई उनका दामाद न बने। वे अपने बापों के मरने के बाद अपनी सौतेली माताओं से विवाह कर लेते थे। उन्हें भोजन, वस्त्रा और सफ़ाई के साधारण नियमों की भी जानकारी न थी।

धर्म के विषय में वे उन सारी मूर्खताओं और कुमार्गों के भागी थे, जिनमें उस काल का संसार लिप्त था। मूर्तिपूजा, प्रेतपूजा, नक्षत्रपूजा, अर्थात् एक ईश्वर की पूजा के सिवा उस समय संसार में जितनी पूजाएँ पाई जाती थीं, वे सब उनमें प्रचलित थीं। प्राचीन पैग़म्बरों और उनकी शिक्षाओं के बारे में कोई वास्तविक ज्ञान उनके पास न था। वे इतना अवश्य जानते थे कि इब्राहीम (अलैहि॰) और इस्माईल (अलैहि॰) उनके पितामह हैं, मगर यह न जानते थे कि उन दोनों बाप-बेटे का धर्म क्या था? और वे किसकी पूजा करते थे। पहले की कषैमों—‘आद’ और ‘समूद’ की कथाएँ भी उनमें प्रसिद्ध थीं, मगर उनकी जो कथाएँ अरब के इतिहासकारों ने लिखी हैं उनको पढ़ जाने पर, कहीं भी उन क़ौमों के पैग़म्बरों—‘सालेह’ और ‘हूद’ की शिक्षाओं का चिन्ह न मिलेगा। अरबों को यहूदियों और ईसाइयों द्वारा बनी-इसराईल के पैग़म्बरों की कथाएँ भी पहुँची थीं, मगर वे कहानियाँ जैसी कुछ थीं, इसका अनुमान करने के लिए एक दृष्टि उन कथाओं पर डाल लेना पर्याप्त है जो मुसलमान भाष्यकारों ने उनके स्रोतों से उद्धृत की हैं। यह पता चल जाएगा कि अरब और स्वयं बनी-इसराईल जिन पैग़म्बरों को जानते थे वे वै$से मनुष्य थे। और पैग़म्बरों के संबंध में अरब और इसराईल वंश के लोग कितनी तुच्छ धारणाएँ रखते थे।

ऐसी परिस्थितियों के दृश्यपट पर ऐसे काल और ऐसे देश में एक व्यक्ति जन्म लेता है। बचपन ही में माता-पिता और दादा का साया उसके सिर से उठ जाता है। इसलिए इस गई-गुज़री अवस्था में एक अरबी बच्चे को जो थोड़ी-बहुत गुण-शिक्षा मिल सकती थी वह भी उसे नहीं मिली। होश संभालता है तो बद्दू लड़कों के साथ बकरियाँ चराने लगता है। जवान होता है तो सौदागरी में लग जाता है। उठना, बैठना, मिलना-जुलना, सब कुछ उन्हीं अरबों के साथ है जिनका हाल आपने ऊपर देख लिया। शिक्षा का नाम तक नहीं। पढ़ना-लिखना तक नहीं आता। किसी विद्वान की संगति उसे प्राप्त नहीं हुई क्योंकि विद्वानों का अस्तित्व उस समय सारे अरब में कहीं नहीं था। उसे अरब से बाहर क़दम निकालने के कुछ अवसर अवश्य प्राप्त हुए, मगर यह यात्रा केवल सीरिया देश तक थी और वैसी ही व्यापारिक यात्रा थी जैसी उस काल में अरब के व्यापारिक काफ़िले किया करते थे। मान लीजिए कि अगर उन यात्राओं के बीच में उसने ज्ञान और संस्कृति के कुछ चिन्हों का निरीक्षण किया और उसे कुछ विद्वानों से मिलने का अवसर भी मिला, तो स्पष्ट है कि ऐसे यत्र-तत्र निरीक्षण और ऐसी सामयिक मुलाक़ातों से किसी मनुष्य का चरित्रा नहीं बन जाता। उनका प्रभाव किसी व्यक्ति पर इतना प्रबल नहीं हो सकता कि वह अपने आस-पास के वातावरण से सर्वथा मुक्त, सर्वथा विपरीत और इतना उच्च हो जाए कि उसमें और उसके वातावरण में कुछ समानता ही न रहे। उनसे ऐसा ज्ञान प्राप्त होना संभव नहीं जो एक अनपढ़ व्यक्ति को एक देश का नहीं समस्त संसार का, और एक युग का नहीं बल्कि समस्त युगों का नेता बना दे। अगर किसी अंश में उसने बाहर के लोगों से ज्ञान प्राप्त भी किया हो तो जो ज्ञान उस समय तक संसार को प्राप्त ही न थे, धर्म, नैतिकता, सभ्यता और नागरिकता की जो कल्पनाएँ और जो सिद्धांत उस समय संसार में कहीं थे ही नहीं, मानव-चरित्र के जो आदर्श कहीं पाए ही न जाते थे उनकी प्राप्ति का कोई साधन ही नहीं हो सकता था।

यह व्यक्ति जिन लोगों में पैदा हुआ, जिनमें बचपन गुज़रा, जिनके साथ पलकर जवान हुआ, जिनसे उसका मेल-जोल रहा, जिनसे उसके व्यवहार और संबंध रहे, आरंभ ही से स्वभाव में, आचरण में वह उन सबसे भिन्न दिखाई देता है। वह कभी झूठ नहीं बोलता। उसकी सत्यवादिता पर जाति गवाही देती है। उसके किसी बुरे से बुरे शत्रु ने भी कभी उस पर यह दोष नहीं लगाया कि उसने अमुक अवसर पर झूठ बोला था। वह किसी से दुर्वाच्य नहीं करता। किसी ने उसके मुख से कभी गाली या कोई गन्दी बात नहीं सुनी। वह लोगों से हर प्रकार के व्यवहार करता है, मगर कभी किसी से कड़वी बात और तू-तू, मैं-मैं का अवसर नहीं आता। उसकी बोली में कटुता की जगह मिठास है और वह भी ऐसी कि जो उससे मिलता है उसका हो जाता है। वह किसी से दुर्व्यवहार नहीं करता। किसी का हक़ नहीं मारता। वर्षों सौदागरी का पेशा करने पर भी किसी का एक पैसा भी अनुचित ढंग से नहीं लेता। जिन लोगों से उसके संबंध होते हैं वे सब उसकी सत्यता पर पूर्ण विश्वास रखते हैं। समस्त जाति उसको ‘‘अमीन’’ (धरोहर-रक्षक एवं सत्यवादी) कहती है। शत्रु तक उसके पास अपने क़ीमती माल रखवाते हैं और वह उनकी भी रक्षा करता है। निर्लज्ज लोगों के बीच वह ऐसा लजीला है कि होश संभालने के बाद किसी ने उसको नंगा नहीं देखा। दुराचारियों में वह ऐसा सदाचारी है कि कभी किसी कुकर्म में लिप्त नहीं होता। शराब और जुआ को हाथ तक नहीं लगाता, असभ्य लोगों के बीच वह ऐसा सभ्य है कि हर बेहूदगी और गन्दगी से घृणा करता है और उसके हर काम में पवित्रता और सुथराई पाई जाती है। पाषाण-हृदयों के बीच वह ऐसा सहृदय है कि हर एक के दुख-दर्द में सम्मिलित होता है। अनाथ बच्चों और विधवाओं की सहायता करता है। यात्रियों की सेवा करता है। किसी को उससे दुख नहीं पहुँचता। वह दूसरों के लिए स्वयं दुख उठाता है। बर्बरों के बीच वह ऐसा शान्तिप्रिय है कि अपनी जाति में विद्रोह और रक्तपात का बाज़ार गर्म देखकर उसको दुख होता है और अपने क़बीले की लड़ाइयों से दामन बचाता है और संधि के प्रयत्नों में आगे-आगे रहता है। मूर्ति-पूजकों के बीच उसकी प्रकृति इतनी सीधी और बुद्धि इतनी शुद्ध है कि धरती और आकाश में कोई चीज़ उसे पूजने योग्य दिखाई नहीं देती। किसी प्राणी के आगे उसका सिर नहीं झुकता। मूर्तियों के चढ़ावे का भोजन भी ग्रहण नहीं करता। उसका हृदय आप ही आप शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और सृष्टि-पूजा से घृणा करता है।

उस वातावरण में वह व्यक्ति ऐसा प्रमुख दिखाई देता है कि जैसे घटाटोप अंधेरे में एक दीपक प्रकाशमान हो या पत्थरों के ढेर में एक हीरा चमक रहा हो। लगभग चालीस वर्ष बाद तक ऐसा ही पवित्र, स्वच्छ और शिष्टतापूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद उसके जीवन में एक परिवर्तन उत्पन्न होता है और वह इस अंधकार से घबरा उठता है जो उसे हर ओर से घिरा हुआ दिखाई दे रहा था। वह मूर्खता, अनैतिकता, दुश्चरित्रता, दुर्व्यवस्था, अनेक-पूजन और मूर्ति-पूजा के उस भयानक समुद्र से पार निकल जाना चाहता है जो उसको घेरे हुए है। उस क्षेत्र में कोई वस्तु भी उसको अपनी प्रकृति के अनुवू$ल दिखाई नहीं देती। वह सबसे अलग होकर आबादी से दूर पहाड़ों की गुफ़ा में जाकर बैठने लगता है। एकांत और शान्ति के वातावरण में कई-कई दिन गुज़रते हैं। रोज़े रख-रखकर अपनी आत्मा और अपने हृदय और मस्तिष्क को और अधिक शुद्ध करता है, सोचता है, विचार करता है और कोई ऐसा प्रकाश ढूँढ़ता है जिससे वह चारों ओर छाई हुई अंधियारी को दूर कर दे। ऐसी शक्ति प्राप्त करना चाहता है जिससे वह बिगड़े हुए संसार को फिर से संवार दे।

यकायक स्थिति में एक महान परिवर्तन होता है। सहसा उसके हृदय में वह प्रकाश आ जाता है जो पहले उसमें न था। अचानक उसके भीतर वह शक्ति भर जाती है, जिससे वह उस समय तक ख़ाली था। वह गुफ़ा की शून्यता से निकल आता है। अपनी जाति के पास जाता है। उससे कहता है कि ये मूर्तियाँ, जिनके आगे तुम झुकते हो, सब तथ्यहीन वस्तुएँ हैं। इन्हें छोड़ दो। कोई वृक्ष, कोई पत्थर, कोई मृत-आत्मा, कोई नक्षत्र इस योग्य नहीं कि तुम उसके आगे सिर झुकाओ, उसकी पूजा और उसकी उपासना करो, उसका आज्ञापालन और उसकी हुक्मबरदारी करो। यह पृथ्वी, यह चाँद, यह सूर्य, यह नक्षत्र, इस धरती और आकाश की सारी वस्तुएँ एक ईश्वर की सृष्टि हैं। वही तुम्हारा और इन सबका पैदा करने वाला है। वही जीविका देने वाला है। वही मारने और जिलाने वाला है। सब कुछ छोड़कर उसी की पूजा करो। सबको छोड़कर उसी की आज्ञा मानो और उसी के आगे सिर झुकाओ। यह चोरी, यह लूटमार, यह हिंसा और रक्तपात, यह अन्याय और अत्याचार, यह कुकर्म, जो तुम करते हो, सब पाप हैं। इन्हें छोड़ दो। ईश्वर इन्हें पसन्द नहीं करता। सच बोलो, न्याय करो। किसी की जान न लो, किसी का माल न छीनो, जो कुछ लो हक़ के साथ लो, जो कुछ दो, हक़ के साथ दो। तुम सब मनुष्य हो। मनुष्य-मनुष्य सब बराबर हैं। न कोई नीचता का कलंक लेकर पैदा हुआ और न कोई बड़ाई का तमग़ा लेकर संसार में आया। श्रेष्ठता और बड़ाई वंश और गोत्र में नहीं ईश्वर की आज्ञा पर चलने, अच्छे काम करने और पवित्र जीवन बिताने में है।

जो मनुष्य ईश्वर से डरता है, पुण्य-आत्मा और पवित्र है; वही उत्तम श्रेणी का मनुष्य है। जो ऐसा नहीं वह कुछ भी नहीं। मरने के बाद तुम सबको अपने ईश्वर के पास उपस्थित होना है। तुम में से हर व्यक्ति अपने कर्मों का ईश्वर के सामने उत्तरदायी है। वह ईश्वर जो सब कुछ देखता और जानता है, तुम कोई चीज़ उससे छिपा नहीं सकते। तुम्हारे जीवन का कर्मपत्र उसके सम्मुख बिना किसी कमी-बेशी के पेश होगा और उसी कर्मपत्र के अनुसार वह तुम्हारे परिणाम का निर्णय करेगा। उस सच्चे न्यायी के यहाँ न कोई सिफ़ारिश काम आएगी, न रिश्वत चलेगी, न किसी का वंश पूछा जाएगा। वहाँ केवल ईमान और अच्छे कर्म की पूछ होगी। जिसके पास यह दौलत होगी वह स्वर्ग में जाएगा और जिसके पास इनमें से कुछ भी न होगा वह असफल होकर नरक में डाला जाएगा। यह था वह सन्देश, जिसे लेकर वह गुफ़ा से निकला।

मूर्ख जाति उसकी शत्रु हो जाती है। गालियाँ देती है। पत्थर मारती है। एक दो दिन नहीं, इकट्ठे तेरह वर्ष तक उस पर बड़े से बड़ा अत्याचार करती है। यहाँ तक कि उसे देश से निकाल देती है और फिर केवल निकालने पर ही दम नहीं लेती। वह जहाँ जाकर शरण लेता है, वहाँ भी उसे बुरी तरह सताती है। सारे अरब को उसके विरुद्ध उभार देती है और पूरे आठ वर्ष तक उसके विरुद्ध संग्राम-संलग्न रहती है। वह इन सब कष्टों को सहता है, मगर अपनी बात से नहीं टलता। यह जाति उसकी शत्रु क्यों हुई? क्या धन और धरती का कोई झगड़ा था? क्या ख़ून का कोई दावा था? क्या वह कोई चीज़ माँग रहा था? नहीं, सारी शत्रुता इस बात पर थी कि वह एक ईश्वर की उपासना और पवित्रता और पुण्य कर्म की शिक्षा क्यों देता है? मूर्तिपूजा, अनेकेश्वरवाद और कुकर्म के विरुद्ध प्रचार क्यों करता है? पूजारियों और पुरोहितों की अगुवाई पर चोट क्यों लगाता है? सरदारों की सरदारी का पाखंड क्यों तोड़ता है? आदमी-आदमी के बीच से ऊँच-नीच का भेदभाव क्यों मिटाना चाहत है? गोत्र और वंश के द्वेष को मूर्खता क्यों ठहराता है? चिरकाल से समाज की जो व्यवस्था बंधी चली आ रही है उसे क्यों तोड़ना चाहता है? जाति कहती थी कि ये बातें जो तू कह रहा है ये सब गोत्र-गाथा और जातीय संस्कार के विरुद्ध हैं, तू इन्हें छोड़ दे। नहीं तो हम तेरा जीना मुश्किल कर देंगे।

इस व्यक्ति ने ये कष्ट क्यों उठाए? जाति बादशाही देने के लिए तैयार थी। धन के ढेर उसके चरणों में डालने के लिए तैयार थी इस शर्त पर कि वह इस शिक्षा को बन्द कर दे, मगर उसने उन सबको ठुकरा दिया, और अपनी शिक्षा के लिए पत्थर खाना और अत्याचार सहना स्वीकार किया। यह आख़िर क्यों? क्या लोगों के ईश्वरवादी और सदाचारी बन जाने में उसका कोई अपना लाभ था? क्या कोई ऐसा लाभ था जिसके मुक़ाबले में राज और सरदारी, दौलत और ऐश के सारे लालच भी कोई महत्व न रखते थे? क्या कोई ऐसा लाभ था जिसकी ख़ातिर एक आदमी कठिन से कठिन शारीरिक और आत्मिक कष्टों में पड़ा रहना और इक्कीस वर्ष तक पड़ा रहना भी सहन कर सकता हो? विचार कीजिए, क्या सहृदयता, त्याग और मानवजाति की सहानुभूति का इससे भी ऊँचा कोई दर्जा आपकी कल्पना में आ सकता है कि कोई व्यक्ति अपने लाभ के लिए नहीं दूसरों की भलाई के लिए कष्ट उठाए? जिनकी भलाई और कल्याण के लिए वह प्रयत्न करता है वे ही उसको पत्थर मारें, गालियाँ दें, घर से बेघर कर दें और परदेस में भी उसका पीछा न छोड़े और इन सब बातों पर भी वह उनका भला चाहने से रुके न?

क्या कोई झूठा व्यक्ति किसी तथ्यहीन बात के लिए ऐसे कष्ट सहन कर सकता है? क्या कोई तीर-तुक्के लड़ाने वाला आदमी केवल भ्रम और अनुमान से कोई बात कह कर उस पर इतनी दृढ़ता से जम सकता है कि विपत्तियों के पहाड़ उस पर टूट जाएँ, धरती उस पर तंग कर दी जाए, सारा देश उसके विरुद्ध उठ खड़ा हो, बड़ी-बड़ी फ़ौजें उस पर उमड़-उमड़ कर आएँ, मगर वह अपनी बात से बाल की नोक के बराबर भी हटने पर आमादा न हो। यह धैर्य, यह संकल्प, यह संतोष स्वयं गवाही दे रहा है कि उसको अपनी सच्चाई पर विश्वास ओर पूर्ण विश्वास था। यदि उसके हृदय में लेशमात्र भी शक-सन्देह होता तो वह लगातार 21 वर्ष तक विपत्तियों और कष्टों के अनवरत तूफ़ानों के सम्मुख कभी न ठहर सकता था।

यह तो उस व्यक्ति की दशा-परिवर्तन का एक पहलू था। दूसरा पहलू इससे भी अधिक आश्चर्यजनक है। चालीस वर्ष की आयु तक वह एक अरबी था। साधारण अरबों की भाँति इस बीच में किसी ने उस सौदागर को एक भाषणकर्ता और एक ऐसे व्याख्यानदाता के रूप में न जाना जिसके व्याख्यान में मानो जादू हो। किसी ने उसे हिकमत और ज्ञान की बातें करते न सुना। किसी ने उसको नैतिक दर्शन और विधान, और राजनीति, अर्थ और संस्कृति संबंधी समस्याओं पर वार्ता करते न देखा। किसी ने उससे ख़ुदा और फ़रिश्ते और आसमानी किताबों और पिछले रसूलों और प्राचीन जातियों, प्रलय और मृत्यु के बाद पुनः जीवित हो उठने और स्वर्ग-नरक के बारे में एक शब्द भी न सुना। वह चरित्र आचरण, सभ्य, शिष्ट व्यवहार और उत्तम चरित्रा तो अवश्य रखता था, मगर चालीस वर्ष की उम्र को पहुंचने तक उसमें कोई असाधारण बात न पाई गई, जिससे लोगों को आशा होती कि अब यह व्यक्ति कुछ बनने वाला है। उस समय तक जानने वाले उसको केवल एक मौन, शान्तिप्रिय और अति सज्जन पुरुष की हैसियत से जानते थे। मगर 40 वर्ष बाद जब वह अपनी गुफ़ा से एक नया सन्देश लेकर निकला तो एकदम उसकी काया ही पलटी हुई थी।

अब वह एक आश्चर्यजनक वाणी सुना रहा था, जिसको सुनकर सारा अरब आश्चर्य चकित रह गया। उसकी वाणी के प्रभाव की तीव्रता की यह दशा थी कि उसके कट्टर दुश्मन भी उसको सुनते हुए डरते थे कि कहीं यह दिल में उतर न जाए। उसकी वाणी की सरसता, उत्तमता और वर्णन की शक्ति का यह हाल था कि सारी अरब-जाति को, जिसमें बड़े-बड़े कवि, व्याख्यानदाता और वाव्$पटुता के दावेदार मौजूद थे, उसने चुनौती दी कि तुम सब मिलकर एक ही ‘‘सूरह’’ (क़ुरआन का एक अंश) इसके अनुरूप बना लाओ, मगर कोई उसके मुक़ाबले का साहस न कर सका। ऐसी अनुपम वाणी कभी अरबवासियों के कानों ने सुनी न थी।

अब सहसा वह एक अपूर्व ज्ञानी, सभ्यता और संस्कृति का एक अद्वितीय सुधारक, राजनीति का एक आश्चर्यजनक पटु, एक महान नीतिकार, एक उत्तम श्रेणी का जज, एक वीर सेनापति बनकर प्रकट हुआ। रेगिस्तान के रहने वाले उस अनपढ़ व्यक्ति ने हिकमत, ज्ञान और बुद्धि की वे बातें कहनी प्रारंभ कर दीं जो इससे पहले किसी ने न कही थीं और न उसके बाद कोई कह सका। वह अनपढ़ मनुष्य ईश्वरवाद के महान प्रसंगों पर निश्चयात्मक बयान देने लगा। जातियों के इतिहास से जातियों के उत्थान-पतन के दर्शन पर व्याख्यान देने लगा। पुराने सुधारकों के कार्यों और संसार के धर्मों पर टीका करने लगा। नैतिकता, सभ्यता और शिष्टता का पाठ पढ़ाने लगा।

उसने सामाजिक, आर्थिक और सामूहिक व्यवहारों और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के विषय में नियम बनाने आरंभ कर दिए और ऐसे-ऐसे नियम बनाए कि बड़े-बड़े विद्वान और ज्ञानी, सोच-विचार और जीवन भर के अनुभवों के बाद कठिनता से उनके रहस्यों को समझ सके और संसार के अनुभव जितने बढ़ते जाते हैं उनके गुण और अधिक व्यापक होते जाते हैं। वह मौनधारी, शान्तिप्रिय व्यापारी जिसने समस्त जीवन में कभी तलवार नहीं चलाई थी, कभी कोई सैनिक शिक्षा नहीं पाई थी, यहाँ तक कि जो जीवन भर में एक बार एक लड़ाई में केवल तमाशाई की हैसियत से शामिल हुआ था, वह देखते-देखते ऐसा वीर योद्धा बन गया, जिसके पाँव कठिन से कठिन युद्धों में भी अपने स्थान से एक इंच न हटे। ऐसा महान सेनापति बन गया जिसने नौ वर्ष की अवधि में समस्त अरब देश को अपने अधीन कर लिया। ऐसा आश्चर्यजनक मिलेट्री लीडर बन गया कि उसके उत्पन्न किए हुए फ़ौजी संगठन और सैनिक व्यवस्था के प्रभाव से बेसरोसामान अरबों ने गिने-चुने वर्षों में संसार की दो महान सैनिक शक्तियों को उलट कर रख दिया। ये दो महान सैनिक शक्तियाँ रोम और ईरान की थीं।

वह अलग-थलग रहने वाला एकांतप्रिय मनुष्य जिसमें किसी ने चालीस वर्ष तक राजनीतिक रुचि की गंध भी न पाई थी यकायक इतना महान सुधारक और विधिकार बनकर प्रकट हुआ कि 23 वर्ष के भीतर उसने 12 लाख वर्ग मील के क्षेत्र में फैली हुई मरुभूमि के असंगठित, लड़ाकू, मूर्ख, स्वच्छंद, असभ्य और आपस में सदा लड़ने वाले गोत्रों को रेल, तार, रेडियो और प्रेस की सहायता के बिना एक धर्म, एक सभ्यता, एक विधान और एक राज-व्यवस्था के अधीन बना दिया। उसने उनके विचार बदल दिए, उनके स्वभाव बदल दिए, उनके आचरण बदल दिए, उनकी असभ्यता को उच्चकोटि की सभ्यता में, उनकी बर्बरता को श्रेष्ठ नागरिकता में, उनकी दुश्चरित्रता और अनैतिकता को सुचरित्रता, संयम और श्रेष्ठ नैतिकता में, उनकी उद्दंडता और निरंकुशता को असीम नियमबद्धता और आज्ञापालन में परिवर्तित कर दिया। उस बाँझ जाति को जिसकी गोद में शताब्दियों से कोई एक भी वर्णनीय मनुष्य उत्पन्न न हुआ था, उसने ऐसा सफल बना दिया कि उसमें सहस्रों-सहस्र मानव-महान उठ खडे़ हुए और संसार को धर्म और नैतिकता और सभ्यता का पाठ पढ़ाने के लिए संसार में चारों ओर फैल गए। और यह काम उसने अत्याचार, बल-प्रयोग और दग़ा-फ़रेब से सम्पन्न नहीं किया, बल्कि दिल मोह लेने वाले स्वभाव और आत्माओं को विजय कर लेने वाली सज्जनता और मस्तिष्कों पर प्रभुत्व जमा लेने वाली शिक्षा से सम्पन्न किया। उसने अपने अच्छे व्यवहार से शत्रुओं को मित्र बनाया, दया-प्रेम से दिलों को मोम किया, समता और न्याय से हुकूमत की। हक़ और सच्चाई से कभी बाल बराबर न हटा। युद्ध में भी कभी किसी से प्रतिज्ञा-भंग और विश्वासघात नहीं किया। अपने दुष्ट शत्रुओं पर भी अत्याचार नहीं किया। जो उसके ख़ून के प्यासे थे, जिन्होंने उनको पत्थर मारे थे, उसको देश से निकाला था, उसके विरुद्ध सारे अरब को खड़ा कर दिया था, यहाँ तक कि जिन्होंने दुश्मनी के जोश में उसके चचा का कलेजा तब निकाल कर चबा डाला था, उनको भी उसने विजय-प्राप्ति के बाद क्षमा कर दिया। अपने लिए कभी उसने किसी से बदला नहीं लिया।

इन सब बातों के साथ, वह अपनी मनोआकांक्षा पर इतना क़ाबू रखता था, बल्कि वह इतना इच्छारिहत था कि जब वह देश भर का बादशाह हो गया, उस समय भी वह जैसा पहले था वैसा ही रहा। पू$स के छप्पर में रहता था, चटाई पर सोता था, मोटा-झोटा पहनता था, निर्धनों का-सा भोजन करता था, उपवास तक कर जाता था, रात-रात भर अपने ईश्वर की बन्दगी में खड़ा रहता था, ग़रीबों और मुसीबत के मारों की सेवा करता था, एक मज़दूर की तरह काम करने में भी उसको हिचक न थी। अन्तिम समय तक उसके भीतर बादशाही के घमंड और अमीरी की शान और बड़े आदमियों के से दंभ की तनिक भी गंध भी उत्पन्न न हुई। वह एक साधारण आदमी की भाँति लोगों से मिलता था, उनके दुख-दर्द में शामिल होता था, जनता के बीच इस प्रकार बैठता था कि अपरिचित आदमी को यह जानना कठिन होता था कि इस सभा में जाति का नेता, देश का बादशाह कौन है। इतना बड़ा आदमी होने पर भी छोटे से छोटे आदमी के साथ ऐसा व्यवहार करता था मानो वह उसी जैसा एक आदमी है। सारी उम्र की चेष्टा और प्रयत्न में उसने अपने लिए कुछ भी न छोड़ा। अपना पूरा हिस्सा अपनी जाति को प्रदान कर दिया। अपने अनुयायियों पर उसने अपने या अपने वंश के कुछ भी स्वत्व स्थापित न किए, यहाँ तक कि अपने वंशज को ‘‘ज़कात’’ (एक विशेष इस्लामी दान) लेने के अधिकार से भी वंचित कर दिया; केवल इस डर से कि कहीं आगे चलकर उसके वंशजों ही को लोग अपनी सारी ज़कात न देने लग जाएँ।

अभी इस महान मनुष्य की महानता की सूची समाप्त नहीं हुई। उसकी महानता का ठीक-ठीक अनुमान करने के लिए आपको संसार के इतिहास पर सामूहिक रूप से एक दृष्टि डालनी चाहिए। आप देखेंगे कि अरब की मरुभूमि का यह अनपढ़ व्यक्ति जो चौदह सौ वर्ष पहले उस अंधकारपूर्ण काल में उत्पन्न हुआ, वास्तव में नवीन काल का निर्माता और सम्पूर्ण संसार का नेता है। वह न केवल उनका नेता है जो उसे मानते हैं, बल्कि उनका भी है जो उसे नहीं मानते। उनको इस बात का बोध तक नहीं कि जिसके विरुद्ध वे मुख खोलते हैं उसका पथ-प्रदर्शन किस प्रकार उनके विचारों में, उनके जीवन के सिद्धांतों में, उनके कर्म के नियमों में और उनके आधुनिक काल की आत्मा में मिश्रित हो गया है।

यही व्यक्ति है जिसने संसार की कल्पनाओं की धारा को भ्रमवाद और अद्भुतवाद और योगवाद की ओर से हटाकर बुद्धिवाद और यथार्थवाद और संयमयुक्त धर्मवाद की ओर पे$र दिया। उसने अनुभव-युक्त चमत्कार माँगने वाली दुनिया में बौद्धिक चमत्कारों को समझने और उन्हीं को सच्चाई की कसौटी मानने की रुचि पैदा की, उसने प्रकृति-विरुद्ध कामों में ख़ुदाई के चिन्ह ढूंढ़ने वालों की आँखें खोलीं और उनमें प्रकृति के दृश्यों (Natural Phenomena) में ख़ुदा की निशानियाँ देखने का स्वभाव उत्पन्न किया। उसी ने ख़्याली घोड़े दौड़ाने वालों को अटकलबाज़ी (Speculation) से हटाकर बुद्धि, विचार, निरीक्षण और अन्वेषण के रास्ते पर लगाया। उसी ने बुद्धि, अनुभव और चेतना की सीमाएँ मनुष्य को बताईं। भौतिकवाद और ब्रह्मवाद में समन्वय स्थापित किया। धर्म से ज्ञान और कर्म का, और ज्ञान और कर्म का धर्म से संबंध स्थापित किया। धर्म की शक्ति से संसार में वैज्ञानिक शक्ति और वैज्ञानिक शक्ति से शुद्ध धर्मवाद पैदा किया। उसी ने अनेकेश्वरवाद और सृष्टि-पूजा की नींव को उखाड़ा और ज्ञान की शक्ति से एकेश्वरवाद का विश्वास ऐसी दृढ़ता के साथ स्थापित किया कि अनेकेश्वरवादियों और मूर्ति-पूजकों के मत भी एकेश्वरवाद का रंग ग्रहण करने पर विवश हो गए। उसने नैतिकता और आध्यात्मिकता की बुनियादी कल्पनाओं को बदला। जो लोग वैराग्य और इच्छा-दमन को नैतिकता समझते थे, जिनके निकट मन और शरीर के स्वत्वों को पूरा करने और सांसारिक जीवन के विषयों में भाग लेने के साथ आध्यात्मिक उन्नति और मुक्ति संभव ही न थी, उनको उसी ने नागरिकता और समाज और सांसारिक कर्म के बीच नैतिकता की महानता और आध्यात्मिक उन्नति और मुक्ति की प्राप्ति का रास्ता दिखाया। फिर वही है जिसने मनुष्य को उसके सच्चे मूल्य का ज्ञान कराया। जो लोग भगवान के अवतार और अल्लाह के बेटे के सिवा किसी को पथ-प्रदर्शक और नेता स्वीकार करने पर तैयार न थे उनको उसने बताया कि मनुष्य और तुम्हारे ही जैसा मनुष्य स्वर्ग के राज का प्रतिनिधि और ईश्वर का उत्तराधिकारी हो सकता है। जो लोग शक्तिशाली मनुष्य को अपना ईश्वर बताते थे उनको उसी ने समझाया कि मनुष्य सिवाए मनुष्य और कुछ नहीं है। न कोई व्यक्ति पवित्रता, शासनकर्ता और आज्ञादाता का जन्मसिद्ध अधिकार लेकर आया है और न किसी के माथे पर अपवित्रता और महकूमी और दासता का पैदाइशी कलंक लगा हुआ है। इसी शिक्षा ने संसार में मानव-एकता, समानता, जनसत्ता और स्वाधीनता के विचार उत्पन्न किए हैं।

कल्पनाओं की सीमा से आगे बढ़िए। आपको इस अशिक्षित व्यक्ति की लीडरशिप के व्यावहारिक फल संसार के नियमों और प्रणालियों और व्यवहारों में इस अधिकता से नज़र आएँगे कि उनकी गिनती कठिन हो जाएगी। नैतिकता, सभ्यता, शिष्टता और स्वच्छता के कितने ही सिद्धांत हैं जो उसकी शिक्षा से निकलकर सारे संसार में पै$ल गए। उसने जो सामाजिक नियम बनाए थे, उनसे संसार ने कितने लाभ प्राप्त किए और अब तक किए जा रहा है। अर्थनीति के संबंध में उसने जो सिद्धांत सिखाए, उनसे संसार में कितने आन्दोलन उत्पन्न हुए और होते जा रहे हैं। शासन की जो प्रणालियाँ उसने ग्रहण की थीं, उनसे संसार के राजनीतिक दृष्टिकोण में कितनी क्रान्तियाँ हुईं और हो रही हैं। न्याय और नियम के जिन सिद्धांतों को उसने जन्म दिया, उन्होंने दुनिया की अदालती व्यवस्थाओं और क़ानूनी विचारों को कितना प्रभावित किया और अब तक उसका प्रभाव-क्रम ख़ामोशी के साथ जारी है। युद्ध और संधि और अन्तर्राष्ट्रीय संबंध की सभ्यता जिस व्यक्ति ने व्यावहारिक रूप से संसार में स्थापित की वह वास्तव में यही अरब देश का महान पुरुष है, नहीं तो पहले संसार इससे अनभिज्ञ था कि युद्ध की भी कोई आचार-संहिता हो सकती है और विभिन्न राष्ट्रों में, समान मानवता (Common humankind) के आधार पर भी व्यवहार होना संभव है।

मानव-इतिहास के इस पृष्ठ में इस विस्मयकारी मनुष्य का उच्च और महान व्यक्तित्व इतना उभरा हुआ दिखाई देता है कि आदि से लेकर अब तक के बड़े-बड़े ऐतिहासिक मनुष्य जिनकी संसार-महानों (Heroes) में गिनती करता है, जब उसके सामने लाए जाते हैं तो बौने दिखाई देते हैं। संसार के महानों में से कोई भी ऐसा नहीं जिसकी महानता की चमक-दमक मानव-जीवन के एक-दो विभागों से आगे बढ़ सकी हो। कोई सिद्धांतों का बादशाह है मगर कर्म-शक्ति नहीं रखता, कोई कर्म का पुतला है लेकिन सोच-विचार में कमज़ोर है, किसी के चमत्कार राजनीतिक विधि तक सीमित हैं, कोई सैनिक विषयों का विशेषज्ञ है। किसी की दृष्टि सामाजिक जीवन के एक पहलू पर इतनी ज़्यादा गहरी जमी है कि उससे दूसरे पहलू ओझल हो गए हैं। किसी ने नैतिकता और आध्यात्मिकता को लिया तो आर्थिक और राजनीतिक विषय को भुला दिया। किसी ने अर्थ और राजनीति को लिया तो नैतिकता और आध्यात्मिकता की उपेक्षा का दी। सारांश यह है कि इतिहास में हर ओर एकरुख़े हीरो ही दिखाई देते हैं, मगर अकेला एक ही व्यक्ति ऐसा है जिसमें सारी विभूतियाँ तथा विशेषताएँ एकत्रित हैं। वह स्वयं दार्शनिक और ज्ञाता भी है और स्वयं दर्शन को व्यावहारिक जीवन में प्रचारित करने वाला भी। वह राजनीतिक विधिकार भी है और सेनानायक भी। नियम-निर्माता भी है, आचरण-शिक्षक भी है, धार्मिक और आध्यात्मिक नेता भी है। उसकी दृष्टि मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन पर प्रसारित होती है और छोटे से छोटे भाग तक जाती है। खाने और पीने के नियम और शरीर की सफ़ाई के तरीक़ों से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों तक एक-एक वस्तु के संबंध में वह आज्ञाएँ और आदेश देता है। अपने ध्येय के अनुसार एक स्थायी सभ्यता (Civilization) की रचना करके रख देता है और जीवन के सारे विभिन्न पहलुओं में ऐसा वास्तविक संतुलन (Equillibrium) स्थापित करता है कि अधिकता और न्यूनता का कहीं चिन्ह तक दिखाई नहीं देता। क्या इस सम्पूर्णता का कोई दूसरा व्यक्ति आपकी दृष्टि में है?

दुनिया के बड़े-बड़े व्यक्तियों में से कोई एक भी ऐसा नहीं जो कम या ज़्यादा, वातावरण और माहौल का पैदा किया हुआ न हो, मगर इस व्यक्ति की महानता सबसे निराली है। इसके बनाने में इसके वातावरण का कोई योगदान दिखाई नहीं देता और न किसी तर्क से यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अरब का वातावरण उस समय ऐतिहासिक रूप से ऐसे मनुष्य की उत्पत्ति की माँग करता था। बहुत कुछ खींच-तान कर आप जो कुछ कह सकते हैं वह इससे ज़्यादा कुछ न होगा कि ऐतिहासिक कारण अरब में एक ऐसे लीडर की उत्पत्ति की मांग कर रहे थे जो गोत्रिक विभेद और विभिन्नता को हटाकर एक राष्ट्र बनाता और मुल्कों को अधिकृत करके अरबों के आर्थिक कल्याण का सामान करता अर्थात् एक राष्ट्रवादी नेता जो उस काल की समस्त अरबी विशेषताओं से परिपूर्ण होता। अत्याचार, निर्दयता, रक्तपात, धोखा, फ़रेब और हर संभव युक्ति से अपनी जाति को समृद्ध बनाता और एक साम्राज्य पैदा करके अपने संबंधियों के लिए छोड़ जाता। इसके सिवा उस समय के अरबी इतिहास की कोई माँग आप प्रमाणित नहीं कर सकते। हीगल के ऐतिहासिक दर्शन या मार्क्स की भौतिक-ऐतिहासिक विवेचना के दृष्टिकोण से आप अधिक से अधिक यही निश्चय कर सकते हैं कि उस समय उस वातावरण में एक राष्ट्र और एक समाज बनाने वाला पैदा होना चाहिए था या पैदा हो सकता था, मगर हीगली या मार्क्सी दर्शन इस घटना का स्पष्टीकरण वै$से करेगा कि उस समय उस वातावरण में ऐसा व्यक्ति पैदा हुआ जो उत्तम आचरण सिखाने वाला, मानवता को संवारने और आत्माओं की शुद्धि करने वाला और अज्ञानता के भ्रमों और द्वेषों को मिटाने वाला था। जिसकी दृष्टि क़ौम और नस्ल और मुल्क की सीमाओं को तोड़कर पूरी मानवता पर पै$ल गई थी। जिसने अपनी क़ौम के लिए नहीं बल्कि मानव-संसार के लिए एक नैतिक और आध्यात्मिक और सांस्कृतिक और राजनीतिक विधान की बुनियाद डाली। जिसने आर्थिक व्यवहारों, नागरिक राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों को कल्पना-लोक ही में नहीं बल्कि वास्तविक संसार में भी नैतिक आधारों पर स्थापित करके दिखाया और आध्यात्मिकता और भौतिकता का ऐसा नपा-तुला समावेश किया जो आज भी ज्ञान और बुद्धि की वैसी ही राजकीर्ति है जैसी उस समय थी। क्या ऐसे व्यक्ति को अशिक्षित अरब के वातावरण की पैदावार कह सकते हैं?

यही नहीं कि वह व्यक्ति अपने वातावरण की पैदावार नज़र नहीं आता, बल्कि जब हम उसके कारनामों पर विचार करते हैं तो मालूम होता है कि वह काल और स्थान के बंधन से मुक्त है। उसकी दृष्टि समय और स्थिति की सीमाओं को तोड़ती हुई शताब्दियों और सहस्राब्दियों (Milleniums) के परदों को चीरती हुई आगे बढ़ती है। वह मनुष्य को हर काल और हर वातावरण में देखता है और उसके जीवन के लिए ऐसे नैतिक और व्यावहारिक आदेश देता है जो हर अवस्था में एक ही प्रकार की समता के साथ ठीक बैठते हैं। वह उन लोगों में से नहीं है जिनको इतिहास ने पुराना कर दिया है, जिनकी प्रशंसा हम केवल इस दृष्टि से कर सकते हैं कि वे अपने समय के अच्छे नेता थे। सबसे अलग और सबसे प्रमुख, वह मानवता का ऐसा पथ-प्रदर्शक है जो इतिहास के साथ प्रगति (March) करता है और हर युग में वैसा ही नवीन (Modern) दिखाई देता है जैसा उससे पहले के समय के लिए था।

आप जिन लोगों को बड़ी उदारता के साथ इतिहास बनाने वाले (History Makers) की की उपाधि देते हैं, वे वास्तव में इतिहास के बनाए हुए (History Made) हैं। सच पूछिए तो इतिहास बनाने वाला पूरे मानव-इतिहास में केवल यही एक महान पुरुष है। संसार के जितने लीडरों ने इतिहास में क्रान्तियाँ उत्पन्न की हैं उनकी अवस्थाओं पर विवेचनात्मक दृष्टि डालिए। आप देखेंगे कि हर ऐसी अवस्था में पहले से क्रान्ति के कारण उत्पन्न हो रहे थे और वे कारण स्वयं ही उस क्रान्ति की दिशा और मार्ग भी निश्चित कर रहे थे जिसके उत्पन्न होने की वे माँग कर रहे थे। क्रान्तिकारी नेता ने केवल इतना किया कि परिस्थितियों की माँग को शक्ति से कर्म मंे लाने के लिए उस अभिनेता का पार्ट अदा कर दिया जिसके लिए स्टेज और कर्म दोनों पहले ही से निश्चित हों, मगर इतिहास बनाने वालों या क्रान्ति के कारण उत्पन्न करने वालों के पूरे समूह में यह अकेला ऐसा व्यक्ति है कि जहाँ क्रान्ति के कारण प्रस्तुत न थे, वहाँ उसने स्वयं कारण की सृष्टि की। जहाँ क्रान्ति की सामग्री उपस्थित न थी, वहां उसने स्वयं सामग्री उपस्थित की। जहाँ उस क्रान्ति की स्प्रिट और व्यावहारिक योग्यता लोगों में नहीं पाई जाती थी, वहाँ उसने स्वयं अपने मतलब के आदमी तैयार किए। अपने प्रबल व्यक्तित्व को पिघला कर हज़ारों मनुष्यों की काया में उतार दिया। और उनको कैसा बना दिया जैसा वह बनाना चाहता था। उसकी प्रबलता और इच्छा-शक्ति ने आप ही क्रान्ति का सामान किया, आप ही उसका आकार-प्रकार निश्चित किया और आप ही अपनी इच्छा के बल से स्थिति की गति को मोड़ कर उस रास्ते पर चलाया, जिस पर वह उसे चलाना चाहता था। इस कोटि का इतिहास-सृष्टिकर्ता और ऐसा महान क्रान्तिकारी आपको कहाँ नज़र आता है?

आइए, अब इस प्रश्न पर विचार कीजिए कि 14 सौ वर्ष पहले के उस अंधेरे संसार में अरब जैसे प्रकाशरहित देश के एक कोने में एक बकरियाँ चराने वाले और सौदागरी करने वाले अनपढ़, मरुभूमिवासी के भीतर इतना ज्ञान, इतना प्रकाश, इतना बल, इतना चमत्कार, इतनी महान दीक्षा-प्राप्त शक्तियाँ उत्पन्न हो जाने का कौन-सा आधार था? आप कहते हैं कि यह सब उसके अपने दिलोदिमाग़ की पैदावार थी। अगर यह उसी के दिलोदिमाग़ की पैदावार थी तो उसको ख़ुदाई का दावा करना चाहिए था और अगर वह ऐसा दावा करता तो वह दुनिया जिसने कृष्ण को भगवान सिद्ध करने में हिचक न की, जिसने बुद्ध को आप ही आप पूज्य बना लिया, जिसने मसीह को अपनी प्रसन्नता से ख़ुदा का बेटा मान लिया, जिसने आग और पानी और हवा तक को पूज डाला, वह ऐसे महान कीर्तिमान को ईश्वर बना लेने से कभी इन्कार न करती। मगर देखिए वह स्वयं क्या कह रहा है? वह अपने कारनामों में से एक का क्रेडिट भी स्वयं नहीं लेता, कहता है कि मैं एक मनुष्य हूँ, मेरे पास कुछ भी अपना नहीं, सब कुछ ईश्वर का है और ईश्वर ही की ओर से है। यह ‘‘कलाम’’ (वाणी) जिसकी उपमा प्रस्तुत करने में सारी मानव-जाति असमर्थ है, मेरा कलाम नहीं है। मेरे मस्तिष्क की योग्यता का परिणाम नहीं है, शब्द-शब्द ख़ुदा की ओर से मेरे पास आया है और इसकी प्रशंसा ख़ुदा ही के लिए है। ये कारनामे जो मैंने कर दिखाए हैं, ये नियम जिनकी मैंने रचना की, ये सिद्धांत जो मैंने तुम्हें सिखाए इनमें कोई चीज़ भी मैंने स्वयं नहीं गढ़ी है। मैं कुछ भी अपनी योग्यता से प्रस्तुत करने की सामर्थ्य नहीं रखता। हर-हर चीज़ में ख़ुदा के आदेश का मुहताज हूँ। उसकी ओर से जो संकेत होता है वही करता हूँ और वही कहता हूँ। झूठा मनुष्य तो बड़ा बनने के लिए दूसरों की ऐसी कीर्तियों का क्रेडिट भी ले लेने में संकोच नहीं करता, जिनके वास्तविक स्रोत का पता सरलता से चल जाता है, लेकिन यह व्यक्ति इन कीर्तियों का अपने साथ संबंध प्रकट नहीं करता, जिनको अगर वह अपनी कीर्तियाँ कहता तो कोई उसको झुठला न सकता था, क्योंकि किसी के पास उनके वास्तविक स्रोत तक पहुँचने का कोई साधन ही नहीं था। सच्चाई की इससे अधिक खुली हुई दलील और क्या हो सकती है? उस व्यक्ति से अधिक सच्चा कौन होगा, जिसको एक अत्यंत छिपे हुए आधार से ऐसे अनुपम चमत्कार प्राप्त हों और वह बेहिचक अपने वास्तविक स्रोत का पता दे दे। बताइए, क्या कारण है कि हम उसकी सत्यता को स्वीकार न करें?

असल कारनामा

दुनिया जानती है कि अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इन्सानियत के उस सर्वश्रेष्ठ गिरोह से संबंध रखते हैं जो आरंभ से मानव-जाति को ख़ुदापरस्ती और सदाचरण की शिक्षा देने के लिए उठता रहा है। ‘एक’ ख़ुदा की बन्दगी और पवित्र आचरण की शिक्षा जो हमेशा दुनिया के सच्चे पैग़म्बर, ऋषि और मुनि देते रहे हैं, वही हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने भी दी है। उन्होंने किसी नये ख़ुदा की कल्पना पेश नहीं की और न किसी निराले आचरण की शिक्षा ही दी है, जो उनसे पहले के पथ-प्रदर्शकों की शिक्षा से भिन्न हो। फिर सवाल यह है कि उनका वह असली कारनामा क्या है जिसकी वजह से हम उन्हें मानव-इतिहास का सबसे बड़ा आदमी मानते हैं।

इस सवाल का संक्षिप्त जवाब यह है कि बेशक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) से पहले इन्सान इस बात से परिचित था कि ख़ुदा है और उसकी ख़ुदाई में कोई दूसरा शरीक नहीं है, लेकिन इस बात से पूरी तरह परिचित न था कि इस दार्शनिक वास्तविकता का मानव-नैतिकता से क्या संबंध है। इसमें शक नहीं कि इन्सान को नैतिकता के बेहतरीन सिद्धांतों की जानकारी थी, मगर उसे स्पष्ट रूप से यह पता न था कि जीवन के विभिन्न विभागों और पहलुओं में, इन नैतिक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप किस तरह दिया जाना चाहिए। ख़ुदा पर ईमान, नैतिक सिद्धांत और व्यावहारिक जीवन ये तीन अलग-अलग चीज़ें थीं। जिनके बीच कोई तार्किक-संबंध, कोई गहरा ताल्लुक़ और कोई फलदायक रिश्ता मौजूद न था। यह सिर्प़$ हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) हैं, जिन्होंने इन तीनों को मिलाकर एक लड़ी में पिरो दिया और उनके मेल से एक पूर्ण संस्कृति और सभ्यता का नक़्शा केवल कल्पना-जगत ही में नहीं, बल्कि व्यवहार की दुनिया में भी स्थापित करके दिखा दिया।

उन्होंने बताया कि ख़ुदा पर ईमान केवल एक दार्शनिक सत्य के मान लेने का नाम नहीं है, बल्कि इस ईमान का स्वभाव अपनी असल प्रकृति ही के अनुसार एक विशेष प्रकार के अख़्लाक़ और नैतिकता की माँग करता है और इस नैतिकता का प्रदर्शन इन्सान के व्यावहारिक जीवन की सम्पूर्ण नीति में होना चाहिए। ईमान एक बीज के समान है जो इन्सान के दिल में जड़ पकड़ते ही अपनी प्रकृति के अनुरूप व्यावहारिक जीवन रूपी एक पूरे वृक्ष की रचना शुरू कर देता है। और वृक्ष के तने से लेकर उसकी शाखाओं और पत्ती-पत्ती तक में नैतिकता का वह जीवन-रस जारी हो जाता है, जिसके स्रोत बीज के रेशों से उबलते हैं। जिस तरह यह संभव नहीं है कि ज़मीन में बोयी तो जाए आम की गुठली और उससे निकल आये नींबू का पेड़, इसी तरह यह भी संभव नहीं है कि दिल में बोया तो गया हो ख़ुदापरस्ती और ईश्वरवाद का बीज और उससे पैदा हो जाए एक भौतिकवादी जीवन, जिसकी नस-नस में चरित्रहीनता और अनैतिकता की रूह पै$ली हो। ईश्वरवाद से पैदा होने वाले अख़्लाक़ और अनेकेश्वरवाद, नास्तिकता या भौतिकवाद से पैदा होने वाले अख़्लाक़ बराबर नहीं हो सकते। जीवन के ये सारे दृष्टिकोण अपना अलग-अलग स्वभाव रखते हैं और हर एक का स्वभाव दूसरे से भिन्न नैतिकता की अपेक्षा करता है। फिर जो अख़्लाक़ ईश्वरवाद से जन्म लेते हैं वे सिर्फ़ एक ख़ास तपस्वी एंव जप-जप करने वाले गिरोह के लिए ख़ास नहीं हैं कि केवल ख़ानक़ाह और मठों की चारदीवारी और एकांत ही में उनका प्रदर्शन हो सके। उनको व्यापक रूप में पूरी इन्सानी ज़िन्दगी पर और उसके हर-हर पहलू पर चरितार्थ होना चाहिए। एक व्यापारी ईश्वरवादी है तो कोई कारण नहीं कि उसके कारोबार में उसकी ईश्वरवादी नीति सामने न आए। अगर एक जज ईश्वरवादी है तो अदालत की कुर्सी पर, और एक पुलिसमैन ईश्वरवादी है तो पुलिस पोस्ट पर उससे ईश्वरवादी नीति के विरुद्ध किसी चीज़ के ज़ाहिर होने की आशा नहीं कि जा सकती। और इसी तरह अगर कोई क़ौम या समुदाय ईश्वरवादी है तो उसके नागरिक जीवन में, उसकी देश-व्यवस्था में, उसकी विदेश-नीति में और उसके युद्ध और संधि में ईश्वरवादी नीतियों और आचरण का प्रदर्शन होना चाहिए। वरना उसका ईश्वर को मानना निरर्थक होगा। अब रही यह बात कि ईश्वरवाद किस प्रकार के अख़्लाक़ की अपेक्षा करता है और ऐसे अख़्लाक़ का प्रदर्शन किस तरह इन्सान के व्यावहारिक जीवन में और उसकी व्यक्तिगत और सामाजिक नीति में होना चाहिए तो इसे बयान करने के लिए बड़ा समय चाहिए। इसे संक्षेप में समेटना बड़ा मुश्किल है। परन्तु यहाँ नमूने के तौर पर पैग़म्बर (सल्ल॰) के कुछ कथन पेश किए जा रहे हैं, जिनसे आपको अंदाज़ा होगा कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की पेश की हुई जीवन-व्यवस्था में ईमान, अख़्लाक़ और अमल को किस प्रकार एक-दूसरे में समोया गया है।

सुनिए आप (सल्ल॰) क्या फ़रमाते हैं:

‘‘ईमान की बहुत-सी शाखाएँ हैं। उसकी उच्च शाखा यह है कि तुम खुदा के सिवा किसी की उपासना न करो। और उसकी निम्न शाखा यह है कि रास्ते में अगर तुम कोई ऐसी चीज़ देखो, जो राहगीरों को कष्ट देने वाली हो, तो उसे हटा दो और लज्जा (हया) भी ईमान ही की एक शाखा है।’’ (हदीसः बुख़ारी, मुस्लिम)

‘‘शरीर और लिबास का पाक-साफ़ रखना आधा ईमान है।’’ (हदीस: मुस्लिम)

‘‘ईमान वाला वह है, जिससे लोगों को अपनी जान और माल का कोई ख़तरा न हो।’’ (हदीस: तिर्मिज़ी, नसई)

‘‘उस व्यक्ति में ईमान नहीं, जिसमें अमानतदारी नहीं, और उसका कोई दीन-धर्म नहीं, जो वायदे और अहद का पाबन्द नहीं।’’ (हदीस: अल-बैहक़ी फ़ी शोबिल ईमान)

‘‘जब नेकी करके तुझे ख़ुशी हो और बुराई करके तुझे पछतावा हो तो तू ईमान वाला है।’’ (हदीस: मुस्नद, अहमद)

‘‘ईमान संयम, सहनशीलता और उदार-हृदयता का नाम है।’’ (हदीस: मुस्नद, अहमद)

‘‘बेहतरीन ईमानी हालत यह है कि तेरी दोस्ती और दुश्मनी ख़ुदा के वास्ते हो। तेरी जु़बान पर ख़ुदा का नाम जारी हो और तू दूसरों के लिए वही कुछ पसन्द करे, जो अपने लिए पसन्द करता है और उनके लिए वह कुछ नापसन्द करे, जो अपने लिए नापसन्द करता है।’’ (हदीस: मुस्नद अहमद)

‘‘ईमान वालों में अपने ईमान के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा मुकम्मल ईमान उस व्यक्ति का है जो उनमें शील-स्वभाव और आचरण के लिहाज़ से सबसे अच्छा हो और जो अपने घर वालों पर सबसे ज़्यादा मेहरबान हो।’’ (हदीस: तिर्मिज़ी)

‘‘जो व्यक्ति ख़ुदा और आख़िरत पर ईमान रखता हो उसे अपने मेहमान की इज़्ज़त करनी चाहिए, अपने पड़ोसी को तकलीफ़ नहीं देनी चाहिए। और उसे चाहिए कि जब बोले तो भली बात बोले, वरना चुप रहे।’’ (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)

‘‘मुसलमान कभी ताने देने वाला, लानत-मलामत करने वाला, गन्दी बातें करने वाला और जु़बानदराज़ी करने वाला नहीं हुआ करता।’’ (हदीस: तिर्मिज़ी)

‘‘मोमिन सब कुछ हो सकता है, मगर झूठा और विश्वासघात (ख़यानत) करने वाला नहीं हो सकता।’’ (हदीस: अहमद)

‘‘ख़ुदा की क़सम, वह मोमिन नहीं है जिसकी शरारतों से उसका पड़ोसी चैन से न रहे।’’ (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)

‘‘जो व्यक्ति ख़ुद पेट भर खाये और उसके पड़ोस में इसका पड़ोसी भूखा रह जाए, वह ईमान नहीं रखता।’’ (हदीस: अल-बैहक़ी फ़ी शोबिल ईमान)

‘‘जो व्यक्ति अपना गु़स्सा निकाल लेने की ताक़त रखता हो तो फिर गु़स्सा पी जाए, उसके दिल को ख़ुदा शान्ति और ईमान से भर देता है।’’ (हदीस: अबू-दाऊद)

‘‘जो व्यक्ति किसी ज़ालिम और अत्याचारी को ज़ालिम जानते हुए उसका साथ दे, वह इस्लाम से निकल गया।’’ (हदीस: अल-बैहक़ी फ़ी शोबिल ईमान)

‘‘जिसने लोगों को दिखाने के लिए नमाज़ पढ़ी, या रोज़ा रखा या दान (ख़ैरात) दिया उसने ख़ुदा के साथ लोगों को शरीक किया।’’ (हदीस: अहमद)

‘‘ख़ालिस मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) है वह व्यक्ति, जो अमानत में ख़यानत करे, बोले तो झूठ बोले, वचन दे तो उसे भंग कर दे और लड़े-झगड़े तो शराफ़त की हद से गुज़र जाए।’’ (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)

‘‘झूठी गवाही देना इतना बड़ा गुनाह है कि शिर्क के क़रीब पहुँच जाता है। असली मुजाहिद वह है, जो ख़ुदा की फ़रमाबरदारी में ख़ुद अपने आप से लड़े और असली मुहाजिर वह है जो उन कामों को छोड़े जिन्हें ख़ुदा नापसन्द करता है।’’ (हदीस: अल-बैहक़ी फ़ी शोबिल ईमान)

‘‘क़ियामत के दिन ख़ुदा के साये में सबसे पहले जगह पाने वाले वे लोग होंगे, जिनका हाल यह रहा कि जब भी हक़ उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने मान लिया। और जब भी हक़ उनसे मांगा गया तो उन्होंने खुले दिल से दिया और दूसरों के मामले में उन्होंने वह फ़ैसला किया जो वे ख़ुद अपने मामले में जानते थे।’’ (हदीस: अहमद)

‘‘तुम छः बातों की गारंटी दो, मैं तुम्हारे लिए जन्नत की गारंटी देता हूँ—बोलो तो सच बोलो। वचन दो तो पूरा करो। अमानत में खरे उतरो। व्यभिचार से बचो। बुरी नज़र से न देखो और जु़ल्म से हाथ रोक लो।’’ (हदीस: अहमद, अल-बैहक़ी फ़ी शोबिल ईमान)

‘‘धोखेबाज़ और वं$जूस और एहसान जताने वाला आदमी जन्नत में नहीं जा सकता।’’ (हदीस: तिर्मिज़ी)

‘‘जो शरीर हराम की कमाई से पला हो, उसके लिए तो नरक की आग ही ज़्यादा मुनासिब है। वह जन्नत में नहीं जा सकता।’’ (हदीस: इब्ने माजा)

‘‘जिस व्यक्ति ने ऐबदार चीज़ बेची और ख़रीदार को उसके ऐब से बाख़बर नहीं किया, उस पर ख़ुदा का ग़ुस्सा भड़कता रहता है और फ़रिश्ते उस पर लानत भेजते रहते हैं।’’ (हदीस: इब्ने माजा)

‘‘कोई व्यक्ति चाहे कितनी ही बार ज़िन्दगी पाए और ख़ुदा की राह में जिहाद करके जान देता रहे, मगर वह जन्नत में नहीं जा सकता, अगर उसने क़र्ज़ अदा न किया हो।’’ (हदीस)

‘‘मर्द या औरत साठ साल ख़ुदा की इबादत करते हैं और मरते समय एक वसीयत में हक़दार का हक़ मार कर अपने आपको नरक का अधिकारी बना लेते हैं।’’ (हदीस: तिर्मिज़ी, अबू-दाऊद, इब्ने माजा)

‘‘वह व्यक्ति जन्नत में दाख़िल न होगा, जो अपने अधीनों पर बुरी तरह अफ़सरी करे।’’ (हदीस)

‘‘मैं तुम्हें बताऊँ कि रोज़े और ख़ैरात और नमाज़ से भी श्रेष्ठ और बेहतर क्या चीज़ है? वह है दो पक्षों में बिगाड़ हो जाए तो उनमें सुलह करा देना। लोगों के आपसी संबंधों में बिगाड़ पैदा करना ऐसी बुरी हरकत है जो तमाम नेकियों पर पानी पे$र देती है।’’ (हदीस: अबू-दाऊद, तिर्मिज़ी)

‘‘असल मुफ़लिस और दरिद्र वह है, जो क़ियामत के दिन ख़ुदा के सामने इस हाल में हाज़िर हो कि उसके साथ नमाज़, रोज़े, ज़कात थे, मगर वह किसी को गाली देकर आया था, किसी पर लांछन लगाकर आया था, किसी का माल मार खाया था, किसी का ख़ून बहाया था और किसी को पीट कर आया था। फिर ख़ुदा ने उसकी एक-एक नेकी उन मज़लूमों पर बाँट दी और उन मज़लूमों का एक-एक गुनाह उसके हिसाब में डाल दिया और उसके पास कुछ न रहा जो उसे नरक से बचाए।’’ (हदीस: मुस्लिम)

‘‘लोग निजात और मोक्ष से वंचित न हों अगर अपनी बुराइयों को औचित्य देकर और बहाने कर करके अपने मन को इत्मीनान न दिलाएं।’’ (हदीस: अबू-दाऊद)

‘‘जो व्यापारी भाव चढ़ाने के लिए (जनता की मूल आवश्यकताओं की) सामग्रियाँ रोक रखे, (अर्थात् जमाख़ोरी करे) उस पर लानत और फिटकार है।” (हदीस: इब्ने माजा, दारमी)

‘‘जिसने चालीस दिन ग़ल्ला (अनाज) इसलिए रोक रखा (अर्थात् बाज़ार में खाद्य-पदार्थों की कमी पैदा) कि भाव चढ़ जाएँ, तो ख़ुदा का उससे और उसका ख़ुदा से कोई ताल्लुक़ नहीं। फिर अगर वह उस अनाज को ख़ैरात भी कर दे तो माफ़ नहीं किया जाएगा।’’ (हदीस)

ये अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के दसियों हज़ार (संकलित) कथनों में से कुछ कथन हैं जो केवल नमूने के तौर पर यहाँ पेश किए गए। इनसे पाठकों को अंदाज़ा होगा कि पैग़म्बर (सल्ल॰) ने ईमान से अख़्लाक़ और आचरण का, और फिर अख़्लाक़ से ज़िन्दगी के तमाम विभागों का संबंध किस प्रकार स्थापित किया है। इतिहास का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि आप (सल्ल॰) ने इस चीज़ को सिर्फ़ बातों की हद तक न रखा, बल्कि अमल की दुनिया में एक पूरे देश की राजनैतिक व्यवस्था और संस्कृति को इन्हीं बुनियादों पर क़ायम करके दिखाया। और आप (सल्ल॰) का यही वह कारनामा है, जिसकी वजह से आप मानवजाति के सबसे बड़े रहनुमा और पथ-प्रदर्शक है। इसी आधार पर ‘विश्व-नेता’ होने और माने जाने का औचित्य आपको, केवल आप (सल्ल॰) को प्राप्त है। क्योंकि विश्व-नेतृत्व के हर मानदंड, हर कसौटी पर आप (सल्ल॰) पूरे उतरते हैं।


Courtesy :
www.ieroworld.net
www.taqwaislamicschool.com
Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)

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