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अज़ान और नमाज़

Azan aur Namazअज़ान:

एक मुसलमान के लिए नमाज़ का महत्व इतना अधिक है कि वह सब कुछ छोड़ सकता है, परन्तु नमाज़ नहीं छोड़ सकता। वह सदैव नमाज़ से जुड़ा रहे और कभी भूल से भी इसे न छोड़े इसके लिए ईश्वर ने ‘अज़ान’ के रूप में एक शक्तिशाली प्रणाली को नमाज़ से जोड़ दिया है। इसमें नमाज़ का समय हो जाने की घोषणा एक अनोखे अंदाज़ में समय से पूर्व ही कर दी जाती है और हर कोई जान लेता है कि नमाज़ का समय हो गया है।

अज़ान का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है—

अल्लाह सबसे महान है।
अल्लाह सबसे महान है।
मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई इलाह (पूज्य, उपास्य) नहीं है,
मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई इलाह (पूज्य, उपास्य) नहीं है।
मैं गवाही देता हूं कि (हज़रत) मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं,
मैं गवाही देता हूं कि (हज़रत) मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं।
आओ नमाज़ की ओर,
आओ नमाज़ की ओर,
आओ सफलता की ओर,
आओ सफलता की ओर।
अल्लाह सबसे महान है,
उसके अतिरिक्त कोई इलाह (पूज्य) नहीं।

‘अज़ान’ एक प्रकार से यह घोषणा है कि जो भी वास्तव में ईश्वर को सबसे महान मानता है उसे अपना सब कार्य छोड़कर तुरंत नमाज़ के लिए मस्जिद में आ जाना चाहिए, क्योंकि यही उसकी सफलता एवं मुक्ति का एकमात्र रास्ता है।
‘अज़ान’ चूंकि नमाज़ की घोषणा का एक साधन है, अतः यह आवश्यक है कि उसकी आवाज़ दूर-दूर तक पहुंचे जिससे की कोई भी व्यक्ति इससे वंचित न रह जाए। यही कारण है कि आजकल अज़ान लाउडस्पीकार के माध्यम से दी जाती है।

वुज़ू:

नमाज़ में ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने से पहले हर मुसलमान को ‘वुज़ू’ करना होता है जिसमें वह अपने शरीर के कुछ अंगों को निर्धारित तरीक़े से धोकर साफ़ करता है।

‘वुज़ू’ के बिना नमाज़ नहीं हो सकती। ‘वुज़ू’ एक मुसलमान को शारीरिक एवं मानसिक रूप से ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने के लिए तैयार करता है।

नमाज़:

ईश्वर की कृपा और अनुकंपा से भाव-विभोर होकर उसके प्रति अपनी श्रद्धा एवं आस्था की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य सदैव से उसकी उपासना और आराधना करता आ रहा है। इस अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप समाज में प्रचलित रहे हैं और उनमें समय के साथ-साथ परिवर्तन भी होता रहा है। कोई ईश्वर की काल्पनिक प्रतिमा को सामने रखकर उसकी उपासना करता है तो कोई उसे निराकार मानकर प्रतिमा को पूजने से इन्कार करता है। किसी की उपासना की पद्धति गाने-बजाने पर आधारित है, तो कोई एकांत में शांति से चिंतन-मनन करने को प्राथमिकता देता है। पद्धति कोई भी हो, उद्देश्य सबका एक ही होता है—ईश्वर की कृपा और प्रसन्नता की प्राप्ति।

ईश्वर, जो सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्व-विद्यमान है, क्या वह किसी भी पद्धति को स्वीकार कर लेगा और उसके लिए सब पद्धतियां समान हैं चाहे उनमें अन्तर्विरोध ही क्यों न पाया जाता हो?

इस प्रश्न पर मनुष्य प्रायः विचार नहीं करता और न ही इसकी आवश्यकता समझता है। आस्था के विषय पर वह अपने विवेक और बुद्धि के उपयोग के बजाय अपने पूर्वजों के अनुसरण में ही अपनी सफलता देखता है।

यह असंभव है कि जिस ईश्वर ने इस विशाल संसार को इतनी सूक्षमता से बनाया, उसने मनुष्य को उपासना के तरीक़े से अवगत न कराया हो, और उसे स्वतंत्र छोड़ दिया हो कि वह जो तरीक़ा चाहे आविष्कृत कर लें और ईश्वर उन सबको स्वीकार कर लेगा।

नमाज़ ईश्वर द्वारा प्रदान की गई उपासना एवं आराधना की पद्धति का नाम है, जिसका निर्धारण स्वयं उसी ने किया है और जिसका ज्ञान अपने ईशदूतों के माध्यम से वह हर काल में मनुष्यों को देता रहा है, और जिसका पूर्ण और अन्तिम विवरण उसने अपने अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) द्वारा अपनी अन्तिम पुस्तक पवित्र क़ुरआन के माध्यम से भेज दिया है।

यह अत्यंत दुख की बात है कि नमाज़ को मुसलमानों का तरीक़ा मानकर बाक़ी लोग इसे निरस्त कर देते हैं, हालांकि यह तरीक़ा तो समस्त मानवजाति के लिए भेजा गया था।

वैसे तो यह पूरा संसार ईश्वर की ही सृष्टि है और वह हर ओर विद्यमान है, परन्तु उसी के आदेशानुसार नमाज़ में हर मुसलमान को ‘किबला’ की ओर मुंह करके खड़े होना पड़ता है।

‘किबला’ उस दिशा को कहते हैं जिधर ‘काबा’ है। ‘काबा’ समस्त संसार वालों के लिए एकेश्वरवाद का केन्द्र है, जो मक्का शहर (सऊदी अरब) में स्थित है, और मुसलमान किसी भी देश में हों, उसी दिशा की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं।

‘‘तुम जिस जगह से भी होकर जाओ, वहीं से अपना रुख़ (नमाज़ के समय) प्रतिष्ठित मस्जिद (काबा) की ओर फेर दो, क्योंकि यह तुम्हारे रब का बिल्कुल सत्य पर आधारित फ़ैसला है और अल्लाह तुम लोगों के कर्मों से बेख़बर नहीं है।’’ (क़ुरआन, 2:149)

नमाज़ ईश्वर से सीधा संपर्क स्थापित कराती है:

इस्लाम में नमाज़ अन्य धर्मों की तरह, मात्र भक्ति एवं श्रद्धा व्यक्त करने का माध्यम नहीं है, बल्कि ईश्वर से सीधा संपर्क एवं संवाद करने का एक आश्चर्यजनक माध्यम भी है। यही कारण है कि एक ईश्वर में अपनी आस्था (ईमान) व्यक्त करने के बाद एक मुसलमान के लिए नमाज़ पढ़ना सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य माना गया है।

एक मनुष्य के लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या होगी कि वह अपने सृष्टिकर्ता और पालनहार से सीधा, साक्षात् और तात्कालिक संपर्क स्थापित कर सके। नमाज़ वास्तव में इसी संपर्क को स्थापित करने का एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जिसमें किसी की मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं होती और वह भी एक बार नहीं, बल्कि दिन में पांच बार।

नमाज़ का समय:

एक मुसलमान के लिए नमाज़ प्रतिदिन पांच बार अनिवार्य है। प्रातः सूर्योदय से पहले, दोपहर, शाम, सूर्यास्त के बाद और रात को सोने से पहले।

‘‘नमाज़ वास्तव में ऐसा फ़र्ज़ है जो समय की पाबन्दी के साथ ईमान वालों के लिए अनिवार्य किया गया है।’’ (क़ुरआन, 4:103)

नमाज़ एक सामूहिक उपासना है:

मुसलमानों के लिए अनिवार्य है कि वह पांचों समय की नमाज़ सामूहिक रूप से मस्जिद में अदा करें। किसी कारणवश अगर कोई मस्जिद नहीं पहुंच पाता तो उसे अकेले नमाज़ अदा करने की अनुमति तो है, पर इस्लाम में वरीयता सामूहिक नमाज़ को ही दी गई है।

‘मस्जिद’ वह स्थान है जहां सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने के लिए लोग एकत्रित होते हैं। इसमें न तो ईश्वर की कोई मूर्ति होती है और न ही कोई प्रतिमा।

सामूहिक नमाज़ जिस व्यक्ति की अगुवाई में पढ़ी जाती है उसे ‘इमाम’ कहते हैं। इस्लाम में किसी पुरोहित वर्ग की आवश्यकता नहीं है। नमाज़ की अगुवाई नमाज़ पढ़ने वालों में से कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

नमाज़ हर भेदभाव को समाप्त करती है:

ईश्वर ने किसी मनुष्य को न ऊंचा पैदा किया है, न नीचा। उसकी दृष्टि में सब बराबर हैं। परन्तु प्राचीनकाल से ही कुछ लोग अपने आपको ऊंचा और दूसरों को नीचा समझकर उनके साथ भेदभाव का व्यवहार करते हैं और उनका शोषण और उत्पीड़न करते हैं। इस्लाम ऐसे सभी वर्गीकरण को अस्वीकार करता है और इन्सान के रूप में सभी को भाई-भाई मानता है। नमाज़ इस समानता, बराबरी और भाईचारे का जीवंत उदाहरण है। न ही किसी वर्ग-विशेष को मस्जिद में आने से रोका जा सकता है, और न ही किसी को ऐसी विशेष सुविधा प्राप्त है, जो दूसरों को प्राप्त न हो।

सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते समय सभी को पंक्ति बनाकर खड़ा होना पड़ता है। जो व्यक्ति पहले मस्जिद में प्रवेश करता है वह आगे की पंक्ति में स्थान पाता है। मस्जिद में किसी वर्ग-विशेष के लिए पंक्ति सुरक्षित एवं नियत नहीं की जा सकती।

नमाज़ में सभी को आपस में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना पड़ता है, जिससे छूत-अछूत की सभी सीमाएं टूट जाती हैं। मालिक हो या नौकर, अमीर हो या ग़रीब सभी कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ उस एक ईश्वर के समक्ष अपने आपको झुका देते हैं जिसकी प्रभुसत्ता सभी पर छाई है।

नमाज़ एकता की भावना पैदा करती है:

मुसलमान चाहे किसी भी देश के निवासी हों, उनका नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा एक समान है। एक ही ईश्वर है जिसके सामने सब सजदा करते हैं, एक ही क़ुरआन है जिसके श्लोकों को नमाज़ में पढ़ते हैं, एक ही भाषा (अरबी) है जिसमें नमाज़ पढ़ी जाती है। सभी एक साथ ही ईश्वर के सामने झुकते हैं और एक साथ सजदा करते हैं। एक साथ ही उठते हैं और एक साथ बैठते हैं। इस प्रकार उनमें एकता और सामूहिकता की भावना पैदा होती है।

नमाज़ बुराइयों से रोकती है

नमाज़ बुराइयों से रोकने का एक उत्कृष्ट आधार है। अगर बुराइयों से रुकने का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की आज्ञापालन और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करना है, तो नमाज़ प्रतिदिन पांच बार ईश्वर की याद दिलाकर बुराइयों से रुकने की प्रेरणा देती है।

(ऐ नबी) ‘‘तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी ओर वह्य के द्वारा भेजी गई है और नमाज़ क़ायम करो, यक़ीनन नमाज़ अश्लील और बुरे कामों से रोकती है और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ है।’’ (क़ुरआन, 29:45)

नमाज़ कैसे पढ़ी जाती है?

नमाज़ पढ़ने की प्रक्रिया बहुत ही सरल और सादा है। उसे देखने और समझने के लिए कोई भी मस्जिद में जा सकता है। यह एक मिथ्या धारणा है कि मस्जिद में दूसरों का प्रवेश वर्जित है।

नमाज़ की पूरी प्रक्रिया को मुख्यतः चार अंशों में विभाजित किया जा सकता है—

1. ईश्वर के समक्ष आदर से खड़े होना: इस स्थिति में पवित्र क़ुरआन के कुछ अंशों को पढ़ा जाता है, जिससे की ईश्वर का गुणगान भी होता है और उसके आदेश और सन्देश से हमारा संबंध टूटने नहीं पाता और प्रतिदिन कम से कम पांच बार उसका स्मरण होता रहता है।

2. ईश्वर के समक्ष श्रद्धा से झुक जाना: उसकी महानता, अनुकम्पा और प्रभुसत्ता को स्वीकार करते हुए अपने पूरे अस्तित्व को उसके सामने झुका देना ही मनुष्य की वास्तविकता है। इसी अभिव्यक्ति के लिए नमाज़ में शरीर को ईश्वर के समक्ष झुका दिया जाता है। इस स्थिति को ‘रुकू’ कहते हैं।

3. ईश्वर के समक्ष सजदा करना: उसके समक्ष अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से समर्पित करते हुए अपने शीर्ष को उसके सामने ज़मीन पर लगा देना (सजदा करना) इस बात की अभिव्यक्ति है कि हम उसके सामने नत-मस्तक करते हैं और उसकी हर आज्ञा को स्वीकार करने को तैयार हैं।

4. ईश्वर के समक्ष आदर से बैठना: उसके समक्ष आदर से बैठकर उसकी महानता और उसके गुणों का वर्णन किया जाता है और अपने पापों की क्षमा-याचना की जाती है।

जिस ईश्वर ने मनुष्य को जीवन प्रदान किया एवं उसके जीवन-यापन के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं का प्रबंध किया, उस अत्यंत कृपाशील ईश्वर की उपेक्षा करके जीवन कभी सफल नहीं हो सकता। हमारे जीवन में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है और उसकी अवज्ञा करके हम अपना ही नुक़्सान करेंगे। यही सन्देश है जो अज़ान और नमाज़ के माध्यम से प्रतिदिन पांच बार सभी इन्सानों को दिया जाता है।


Courtesy :
www.ieroworld.net
www.taqwaislamicschool.com
Taqwa Islamic School
Islamic Educational & Research Organization (IERO)

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